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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१७ ) जजी, नवगज लांबी सवा ते गजी ॥ ७ ॥ उपरें फा वियुं बांधे कोय, चार रूपैय्यानुं ते होय ॥ कोइ पढे डी कोइ पांजरी, त्रीश रूपैय्यानी ते खरी ॥ ८ ॥ प हेरी रेशमी जेह कजाय, एक शत रूपैय्ये ते थाय ॥ हाथे बरखा बहु मुद्रिका, श्राव्या नर जाएं सरग थका ॥ ५ ॥ पगे वाण हि अति सुकुमाल, श्याम वरण सबली ते जाल | तेल पुष्प सुगंध सनान, विलेपन तिलक ने पान ॥ १० ॥ एहवा पुरुष वसे जेणें ठाय, स्त्रीनी शोजा कही न जाय ॥ रूपें रंजा बहु शणगार, नित्य उठी वंदे अणगार ॥११॥ इस्युं नगर ते त्रंबावती, सायर लहेर जिहां यावती ॥ वाहाण वखार ता नहिं पार, हाटें लोक करे व्यापार ॥ १२ ॥ नगर कोटने त्रिपोलियो, माणक चोक बहु माणस मिल्यो ॥ वहोरे कूणी मोमी शेर, थाले दोकडा तेहना तेर ॥ १३ ॥ जोगी लोक इस्या ज्यां वसे, दान वरे पाढा नवि खसे ॥ पंचाशी जिन नां प्रासाद, इंद्रपुरीशुं करतां वाद ॥ १४ ॥ पोषध शाला जिहां बहु ताल, करे वखाण त्यां कृषि वाचा ल ॥ पुण्यवंत पोषध धरता त्यां हि, साहम्मीवत्सल होये प्राहि ॥ १५ ॥ ए नगरीनी उपमा घणी, जाहांगीर For Private and Personal Use Only
SR No.020379
Book TitleHitshikshano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhdas Shravak
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages223
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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