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(१२) तव हरख्यां ततकाल ॥ २२ ॥ नर चिंते ए देवें फरी, रूपवती कीधी सुंदरी॥ लकण परगट वचन सुसार, सरव फखं तूगे किरतार ॥३॥ नारीयें नर निरख्यो ते सरूप, किहां गयो ते पापी कुरूप ॥वच न विनय श्रा नरमा बहु, दैवें दूषण टाट्युं सहु ॥२४॥ बेहु नर नारीनां मन मिल्यां, पढ़ें बेहु लुगा सल सत्यां ॥जाग्यो नरने निरखी नार, तु रंमा केम श्राणे गर ॥ २५ ॥ विंगणरंग जिसी उजली, जल कोठी सरखी पातली ॥ नीची ताड जिसी तुं नार, क्याहांथी आवी मुऊ घरबार ॥ २६ ॥ न्हानुं पेट जिश्यो वादलो, लमो हीण जिस्यो कांबलो ॥जीन सुहाली दातडा जिसी, देखी अधर उंट गया खसी ॥२७॥ शनयणी श्रावी क्यांहथी, पखालजल की जा खप नथी ॥ पग पीजणीने वांका हाथ, बाव लशं कोण देशे बाथ ॥ २० ॥ लांबा दांत ने ट्रंकुं नाक॥Jटकनी मुख कडवां वाक्य ॥ढूंकी लटीयें घो घर साद, जा जृमी तुऊ किश्यो सवाद ॥णा बोली ग्रैमी रांमना रहे, अणहूता अवगुण मुऊ कहे ॥ ता हारं रूप तो वानर जिस्युं, तुं कोण जे मुझ कौतुक वस्यं ॥३०॥ वलगां दोय गयां दिवान, नारी कहे
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