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(११५) म म अवगुणो ॥ अतिहिं लोन न करवो कह्यो, सागर शेठ सागरमांहे गयो ॥४॥ शक्ति सारु कीजें श्वाय, जीखारी चक्री नवि थाय॥ कदाचित् जोजन पामे सार, बहु वांब्यु नवि मले लगार ॥५॥ कलेश सोय पामे नर नेठ, जेम जगमां धनावो शेठ ॥ लाख नवाणुं सोवन धणी, करतो कोडि थयो रे वणी ॥ ६॥ पाम्यो कष्ट न हुइ कोडी, अति लोग्ने तस होये खोडी ॥ कदाचित वांग्युं पामे कोय, तो तृष्णा वाधंती जोय ॥ ७॥ तेणे लोन पंमित परि हरो, धर्म शकि थाये तिम करो॥धर्म अर्थ ने साधे काम, ते पंमित जगमां अजिराम ॥ ॥ कोश्क एकलो सेवे काम, गले रूप तस देही श्याम ॥ वन हस्ती परें खाडे पडे, विषय विटंब्यो बहु रडवडे ॥ ए ॥ कोश्क एकलो साधे अर्थ, तेहनो कुजको खाये गर्थ ॥ पोतें पापर्नु नाजन थाय, जिम सिंह गज़ मारीने खाय ॥१॥ कोश्क एकलो सेवे धर्म, नवि पोसाये ते विण कर्म ॥ केवल धर्म यतिने जाण, श्रावकने त्रण वर्ग वखाण ॥ ११ ॥ धर्म न श्राराधे नर कोय, अर्थ काम सेवे ते दोय ॥ बीज विना कणबीनी परें, ते सुखीयो नवि होये घरें
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