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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद। ॥३०॥ | बनाने के लिए प्रयत्न करता है । दिव्य प्रयत्नसे असंख्य योजन प्रमाण दंण्डाकार में ऊपर और नीचे विशाल जीव प्रदेश के पुद्गल समूह को बाहर निकालता है और वैक्रिय शरीर बनाने के लिए हीरा, वैडूर्य, लोहिताक्ष, व्याख्यान. मसार, गल्ल, हंसगर्भ, स्फटिकादि जो सोलह रत्नों की जातियाँ हैं उनके समान सार और उत्तम सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है। दूसरी वार भी इसी प्रकार वैक्रिय समुद्घात-प्रयत्न विशेष कर के, अर्थात् मनुष्य लोक में आनेके लिए वैक्रिय शरीर बना कर अन्य गतियों से उत्कृष्ट मनोहर, चित्त की उत्सुकता से कायचापल्यवाली, प्रचंड, तीव्र, शीघ्र एवं दिव्यगति से अब वह हरिणैगमेषी देव तिरछे लोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य से जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में जहाँ पर ब्राह्मणकुंड ग्राम नगर है वहाँ आता है। वहाँ पर ऋषभदत्त ब्राह्मण के घर जाकर देवानन्दा ब्राह्मणी के पास जाता है। दर्शन होते ही प्रभु महावीर को नमस्कार करता है। फिर परिवार सहित देवानन्दा ब्राह्मणी को अवस्वापिनी निद्रा देता है। सारे परिवार को निद्रित कर वहाँ से अशुभ पुद्गलों को हरन करता है और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपन करता है। फिर प्रभो ! मुझे आज्ञा दें, यों कह कर हरिणगमेषी पीडा रहित अपने दिव्य प्रभाव से भगवन्त को करतल के संपुट में ग्रहण करता है। ग्रहण करते समय गर्भ या माता को जरा मी तकलीफ मालूम नहीं होती । भगवन्त को संपुट में धारण कर वह देव क्षत्रियकुंडग्राम नगर में आकर सिद्धार्थ राजभवन में जाता है और त्रिशला क्षत्रियाणी के पास जाकर उसे सपरिवार को अवस्वापिनी निद्रा दे देता है। फिर वहाँ से भी अशुभ पुद्गलों को दूर कर शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप[7॥३०॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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