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दूसरा व्याख्यान.
8-22
कल्पसूत्र | हिन्दी अनुवाद ||
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॥२७॥
*
पद हैं वे सब तूने ही प्राप्त किये हैं, क्योंकि तू अन्तिम तीर्थकर , प्रथम वासुदेव और चक्रवर्ती होगा। मैं तेरे इस परिव्राजक वेष को वन्दन नहीं करता, किन्तु तू भावीकाल में अन्तिम तीर्थकर होनेवाला है इस अपेक्षासे में तझे नमस्कार करता हूँ। इस तरह मरीचि की स्तुति करता हुआ भरत अपने स्थान पर चला गया। इधर मरीचि अपने भावी उत्कर्ष की बातें सुन कर हर्प के आवेश में आकर त्रिपदी पछाड़ कर नृत्य करते हुए इस प्रकार गाने लगाप्रथमो वासदेवोऽहं, मकायां चक्रवर्त्यहं । चरमस्तीर्थराजोऽहं, ममाहो ! उत्तम कुलम ॥१॥ आद्योऽहं वासुदेवानां, पिता मे चक्रवर्तिनाम् । पितामहो जिनेंद्राणां ममाहो! उत्तम कलम ॥२॥
अर्थ-मैं पहला वासुदेव बनूँगा, मका नगरी में चक्रवर्ती बनूँगा और अन्तिम तीर्थंकर बनगा इस लिए मेरा कुल सर्वोत्तम है। वासुदेवों में पहला मैं हूं, चक्रवर्तियों में मेरे पिता पहले हैं और तीर्थंकरों में मेरे दादा पहले हैं। इस लिए मेरा कुल सर्वोत्तम है। इस प्रकार कुल का मद करने से मरीचिने नीच गोत्र कर्म बांध लिया। जो मनुष्य जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप और विद्या इनका अभिमान करता है उसे भवान्तरमें ये वस्तु हीन प्राप्त होती हैं। अब भगवान के निर्वाण होने पर भी मरीचि साधुओं के साथ ही विचरता है और उपदेश से अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध कर मुनियों को शिष्यतया समर्पण करता है । अर्थात् वैराग्य प्राप्त कर जो दीक्षा ग्रहण करना चाहता है उसे साधुओं के पास भेज देता है।
M॥२७॥
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