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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा व्याख्यान कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद । ॥२६॥ समय वह जंगल में काष्ठ लेने को गया था। मध्याह्न समय होने पर भोजन के वक्त उसके लिए भोजन आया। ठीक उसी समय दैवयोग से कितनेएक साधु रास्ता भूल कर उस जंगल में भटक रहे थे । जब वे साधु उसके दृष्टिगोचर हुए तो उन्हें देख कर उसके मनमें बड़ी खुशी हुई और मन ही मन विचार करने लगा कि मेरे अहोभाग्य हैं जो इस समय यहाँ महात्मा पधारे हैं । बडे हर्ष और आदर सत्कार से नयसारने उन मुनियों को आहार पानी का दान दिया। भोजन किये बाद वह मुनियों को नमस्कार कर बोला-चलो महाभाग ! आपको मार्ग बतलाऊं । मार्ग चलते समय मुनियोंने उसे योग्य समझ कर धर्मोपदेश द्वारा समकित प्राप्त करा दिया। अन्त समय नवकार मंत्र स्मरण करने पूर्वक मृत्यु पाकर वह दूसरे भवमें सौधर्म देवलोक में पल्योपम की आयुवाला देव पैदा हुआ । वहाँ से चल कर तीसरे भव में मरीचि नामक भरतचक्रवर्तीका पुत्र हुआ । वैराग्य प्राप्त कर उसने श्रीऋषभदेव प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और स्थविरों के पास एकादशांगी का अध्ययन किया। एक दिन ग्रीष्मकाल के ताप से पीड़ित हो विचारने लगा कि चिरकाल तक इस तरह संयम धारण करना अति दुष्कर है । इस प्रकार कष्टमय जीवन विताना मुझ से न बन सकेगा; परन्तु सर्वथा वेष परित्याग कर घर जाना भी अनुचित है। यह विचार कर उसने एक नूतन वेष निर्माण किया । यह समझ कर कि साधु तो मन, वचन और काया के तीन दण्ड से रहित हैं किन्तु मैं वैसा नहीं हूँ इस लिए मेरे पास त्रिदंडका चिह्न चाहिये, एक त्रिदंडक रख लिया । साधु द्रव्यभाव से मुण्डित हैं मैं वैसा नहीं हूँ, यह समझ कर सिर पर चोटी ॥२६॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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