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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir भी नौवा व्याख्यान कल्पसत्र हिन्दी अनुवाद। ॥१५९॥ सेवन कर, अतिचार रहित पालन कर, विधिपूर्वक करने से सुशोभित कर जीवन पर्यन्त आराधन कर, दूसरों को उपदेश कर, श्री जिनेश्वरों द्वारा उपदेश किये मुजब जैसे पूर्व में पाला वैसे ही फिर पाल कर कितने एक निग्रंथ श्रमण उसको अति उत्तमतापूर्वक सेवन कर उसी भव में सिद्ध होते हैं, केवली होते हैं, कर्मरूप पिंजरे से मुक्त होते हैं, कर्मकृत सर्व ताप के उपशमन से शीतल होते हैं और मन संबन्धी सर्व दुःखों का अन्त करते हैं, कितनेएक उसकी उत्तम पालना द्वारा दूसरे भव में सिद्ध होते हैं, यावत् शरीर तथा मन संबन्धी सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । कितनेएक उसकी मध्यम पालना से तीसरे भवमें यावत् शरीर तथा मन संबन्धी दुःखों का अन्त करते हैं । कितनेएक जघन्य आराधना द्वारा भी सात आठ भव तो उलंधे ही नहीं। अर्थात् सात आठ | भव में तो अवश्य ही मुक्ति पाते हैं। ६३ । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् श्री महावीर प्रभु राजगृह नगर में समवसरे। उस समय गुणशील नामक चैत्य में बहुत से साधुओं, बहुतसी साध्वीयों, बहुत से श्रावकों, बहुत से श्राविकाओं, बहुत से देवों और बहुतसी देवीयों के मध्य में रह कर इस प्रकार वचन योग द्वारा फल कथनपूर्वक जनाया, इस प्रकार | प्ररूपण किया अर्थात् दरपण के समान श्रोताओं के हृदय में संक्रमाया और पर्युषणाकल्प नामक अध्ययन को प्रयोजन सहित, हेतु सहित, कारण सहित, सूत्र सहित, अर्थ सहित, सूत्रार्थ दोनों सहित, व्याकरण-पूछे हुए याकरण-पछे हए । १५९॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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