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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir नौवां व्याख्यान. कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद। २२ जिनकल्पी को निरंतर और स्थविरकल्पी को चातुर्मास में अवश्यमेव लोच कराना चाहिये । इस वचन से चातुर्मास रहे साधु साध्वी को आषाढ चातुर्मास के बाद लंबे केश तो दूर रहे परन्तु गाय के रोम जितने भी केश रखने नहीं कल्पते । इस लिए वह रात्रि भाद्रपद शुक्ला पंचमी की रात्रि और वर्तमान में शुक्ला चतुर्थी की रात्रि उल्लंघन न करनी चाहिये। उस से पहिले ही लोच कराना चाहिये । यह भावार्थ है कि यदि समर्थ हो तो चातुर्मास में सदैव लोच करावे और यदि असमर्थ हो तो भादवा सुदि चौथ की रात्रि तो उल्लंघन करनी ही नहीं चाहिये । पर्युषणा पर्व में साधु साध्वी को निश्चय ही लोच किये बिना प्रतिक्रमण करना नहीं कल्पता, क्यों कि केश रखने से अप्काय की विराधना होती है। तथा उसके संसर्ग से जुवों की उत्पत्ति होती है, एवं केशों में खुजली करते हुए उन जूवों का वध होता है या मस्तक में नाखून लगता है। यदि उस तरह से या कैंची से कतरवावे या मुंडन करावे तो आज्ञाभंगादि दोष लगता है, संयम और आत्म विराधना होती है। जूवों का वध होता है, नापित पश्चात् कर्म करता है और शासन की अपभ्राजना होती है इसलिए लोचन श्रेष्ठ है । यदि कोई लोच न सहन कर सकता हो या लोच कराने से बुखार आदि आजाता हो, या बालक होने से लोच समय रोने लगता हो या इससे धर्मत्याग देवे तो उसे लोच न करना चाहिये । साधु को उत्सर्ग से लोच करना चाहिये और अपवाद में बाल, बीमार आदि साधु को मुंडन * नापित हजामत किये बाद जो हाथ, वस्त्र, शस्त्रादि धोवे घिसे उसे पश्चात्कर्म कहते है। For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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