SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद ॥ १५३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir है उसे पूछे बिना बिगय खाना नहीं कल्पता । आचार्य या जिसे गुरु मान कर विचरता हैं उसे पूछ कर विगय खाना कल्पता है । किस तरह पूछना सो कहते हैं- हे पूज्य ! यदि आप की आज्ञा हो तो अमुक विगय इतने प्रमाण में और इतने समय तक खाना इच्छता हूँ । यदि वह आचार्यादि उसे आज्ञा दें तो वह विगय उसे कल्पती है अन्यथा नहीं । शिष्य प्रश्न करता है कि हे पूज्य ! ऐसा क्यों कहा गया है ? गुरु उत्तर देते हैं कि आचार्यादि लाभालाभ जानते हैं । ४६ । चातुर्मास रहे साधु वात, पित्त और कफादि संनिपात संबन्धी रोगों की चिकित्सा कराना चाहे तो आचार्यादि से पूछ कर कराना कल्पता है। पहले के समान ही सब कुछ समझना चाहिये । वह चिकित्सा आतुर, वैद्य, प्रतिचारक और भैषज्यरूप चार प्रकार की है। प्रत्येक के फिर चार चार भेद कहे हैं। दक्ष, शास्त्रार्थ को जाननेवाला, दृष्टकर्मा और शुचि ये चार प्रकार भिषक् के हैं। बहुकल्प, बहुगुण, संपन्न और योग्य ये चार प्रकार औषध के हैं । अनुरक्त, शुचि, दक्ष, और बुद्धिमान् ये चार प्रकार प्रतिचारक के हैं । तथा आढ्य-धनवान्, रोगी, भिषक् के वश और ज्ञायक - सत्यवान् ये चार प्रकार रोगी के हैं । ४९ । चातुर्मास रहे साधु यदि कोई प्रशस्त, कल्याणकारी, उपद्रव को हरनेवाला, धन्य करनेवाला, मंगल करनेवाला, शोभा देनेवाला और महाप्रभावशाली तपकर्म अंगीकार करके विचरना चाहे तो गुरु आदि को पूछ कर करना कल्पता है । इत्यादि पहले जैसे ही सब कहना चाहिये । ५० । For Private And Personal नौवां व्याख्यान. ॥ १५३ ॥
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy