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नौवां व्याख्यान.
हिन्दी बनुवाद।
॥१४५॥
४ चातुर्मास रहे हुए किसी साधुको पहले से ही गुरुने कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! बीमार साधु को अमुक बस्तु ला देना तब उस साधु को वस्तु ला देनी कल्पती है परन्तु उसे वह बरतनी नही कल्पती । १४। चातुर्मास रहे साधुको यदि प्रथम से गुरुने कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! अमुक वस्तु तू स्वयं लेना तो उसे लेनी कल्पती है। पर उसे दूसरे को देनी नहीं कल्पती । १५ । चातुर्मास रहे साधु को गुरुने प्रथम से कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! तू ला देना और तू स्वयं भी बरतना तो वह वस्तु उसे कल्पती है। १६ ।
५ चातुर्मास रहे साधु और साध्वियों को विगय लेना नहीं कल्पता । किन साधुओं को नहीं कल्पता ? जो हृष्टपुष्ट हैं, तरुण अवस्था से समर्थ हैं, निरोगी हैं, आरोग्य बलवान् साधुओं को जो आगे कथन की जानेवाली रस से प्रधान विगय हैं वारंवारं खाना नहीं कल्पता। वे विगय ये समझना चाहिये-दूध १, दहीं २, मक्खन ३, घी ४, तेल ५, गुड़ ६, मध ७, मेद्य ८ और मांस ९, अभीक्ष्ण के ग्रहण करने से कारण पड़ने पर भक्षण करने योग्य विगय कल्पती हैं, ऐसा समझना चाहिये। और नव के ग्रहण करने से किसी दिन पक्कान भी ग्रहण किया जाता है। पूर्वोक्त विगय सांचयिका और असांचयिका ऐसे दो प्रकार की है। उसमें दूध, दही और पक्वान ये नामवाली बहुत समय तक नहीं रक्खी जासकतीं सो असांचयिका जानना चाहिये । रोगादि के कारण गुरु बाल आदि को उपग्रह करने के निमित्त या श्रावक के निमंत्रण से वह लेना कल्पता है। घी, तेल और गुड़ ये तीन विगय सांचयिका समझना चाहिये । उन तीन विगयों को लेने समय श्रावक से कहना कि अभी बहुत समय तक
१ शराब,
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