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श्रेयांसकुमार के दान के समय नेत्र से आनन्द के आँसुओं की धारा, वाणीरूप दूध की धारा और इक्षुरस की धारा स्पर्धा से बढ़ती थी, उसी विशुद्ध भावनारूप जल से सिंचित धर्मरूप वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होने लगा । उस रस से प्रभुने वर्षी तप का पारणा किया। उस वक्त वसुधारा (धन) की वृष्टि १, चेलोत्क्षेप (वस्त्र की वृष्टि) २, आकाश में देवदुंदुभि ३, गंधोदक पुष्पवृष्टि, सुगंधमय जल और पुष्पों की वर्षा ४ और अहो दान अहो दान इस प्रकार की आकाश में घोषणा हुई ५ । इस तरह पंच दिव्य प्रगट हुए । तब सब लोग वहाँ एकत्रित हुए | श्रेयांसकुमारने कहा- हे सज्जनो ! सद्गति की इच्छा से इस प्रकार साधुओं को शुद्ध आहार की भिक्षा दीजाती है । इस तरह इस अवसर्पिणी में प्रथम श्रेयांसकुमारने दान की प्रवृत्ति की । लोगोंने श्रेयांस से पूछा कि तुमने कैसे जाना ऐसा दान देना चाहिये ? श्रेयांसने प्रभु के साथ अपना आठ भवों का सम्बन्ध कह सुनाया - जब प्रभु दूसरे देवलोक में ललितांग नामक देव थे तब मैं पूर्वभव की इनकी स्वयंप्रभा नामा देवी हुई थी, फिर जब ये पूर्वविदेहमें पुष्कलावती विजय में लोहार्गल नामक नगर में वज्रजंध नामक राजा थे तब मैं श्रीमती नामा इनकी रानी थी। वहाँ से उत्तरकुरु में भगवान् युगलिक थे तब मैं इनकी युगलनी थी । वहाँसे पहले देवलोक में हम दोनों देव हुए। वहाँसे प्रभु पश्चिम महाविदेह में वैद्यपुत्र थे तब मैं केशव नामक जीर्ण शेठ का पुत्र इनका मित्र था । वहाँसे हम दोनों बारहवें देवलोक में देव हुए। वहाँसे पुंडरीकिणी नगरी प्रभु वज्रनाभ नामा चक्रवर्ती थे उस वक्त मैं इनका सारथी था और वहाँसे हम दोनों २६ वें देवलोक में देव
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