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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir जो इक्ष्वाकु वंश के थे वे इक्षु-गन्ने खाते और दूसरे प्रायः अन्य वृक्षों के पत्र, पुष्प और फलादि खाते । इस प्रकार अग्नि के अभाव से कच्चे ही चावल वगैरह धान्य खाते थे। परन्तु काल के प्रभाव से वह न पचने के कारण थोड़ा थोड़ा खाने लगे। फिर वह भी न पचने से प्रभु के कहे मुजब चावल आदि को हाथ से मसल कर, उनका छिलका उतार कर खाने लगे । वह भी न पचने से प्रभु के उपदेश से पत्तों के दौने में पानी से भिगो कर चावलादि खाने लगे । इस तरह भी न पचने से कितने एक समय तक पानी में रखकर फिर हाथ में दबाया रखकर इत्यादि अनेक प्रकार से वे चावलादि अन्न खाने लगे। इस प्रकार गुजारा करते हुए एक दिन वृक्षों के परस्पर के संघर्षण से नवीन उत्पन्न हुए, पूर्ण बलती ज्वालावाले और तृणसमूह को ग्रास करते हुए अग्नि को देख "यह कोई नवीन रत्न है" ऐसी बुद्धि से हाथ पसार कर के युगलिये उसे लेने लगे । हाथ जलजाने पर भयभीत हो प्रभु के पास जाकर फर्याद की। तब प्रभुने अग्नि की उत्पत्ति जान कर कहा-" हे युगलिको! यह अग्नि उत्पन्न हुआ है। अब तुम चावलादि अन्न उसमें डालकर खाओ जिससे तुम्हें सुख से पचेगा"। प्रभुने यह उपाय बतलाया तथापि पकाने का अभ्यास न होने से और उपाय अच्छी तरह न जानने के कारण वे युगलिये अग्नि में अन्न डाल कर फिर पहले जैसे कल्पवृक्ष से फल माँगा करते थे त्यों अग्नि से वापिस मागते हैं, परन्तु अग्निद्वारा उसकी राख हुई देख "अरे! यह तो राक्षस के समान अतृप्त हो स्वयं ही सब कुछ भक्षण कर लेता है, हमें कुछ भी वापस नहीं देता अतः इसका अपराध प्रभु से कह कर इसे दंड दिलायेंगे" इस विचार For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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