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प्राप्त होने पर जन्म हुआ ।
इसके बाद का सर्व वृत्तान्त - देव देवियोंने वसुधारा की वृष्टि की वहाँतक, उसमें बन्दीजनों को छोड़ देने की, मानोन्मान के वर्धन की और दाण (महसूल) छोड़ देने आदि कुलमर्यादा की हकीकत वर्ज कर बाकी का सब कुछ वृत्तांत पूर्वोक्त प्रकार से श्रीमहावीर प्रभु के जन्मसमय कहा है उस तरह कहना चाहिये ।
अब देवलोक से व्यवकर अद्भुत रूपवान्, अनेक देव - देवियों से परिवृत, सकल गुणों द्वारा युगलिक मनुष्यों से अति उत्कृष्ट, अनुक्रम से वृद्धि प्राप्त करते हुए श्री ऋषभदेव प्रभु आहार की इच्छा होने पर देवताओं द्वारा अमृत रस से सिंचित की हुई रसवाली अंगुली - अंगुष्ठ मुख में रख कर चूँसते थे। इसी तरह दूसरे तीर्थंकरों के लिए भी बाल्यकाल जानना चाहिये । दूसरे तीर्थकरों की बाल्यावस्था बीतने पर वे अग्नि पर पके हुए आहार का भोजन करते थे, परन्तु श्री ऋषभदेव प्रभुने तो दीक्षा ली तब तक देवों द्वारा लाये हुए उत्तरकुरुक्षेत्र के कल्पवृक्ष के फलों का ही भोजन किया था ।
इक्ष्वाकु वंश की स्थापना
अब प्रभु की उम्र एक वर्ष से कुछ कम ही थी तब " प्रथम जिनेश्वर के वंश की स्थापना करना यह इंद्र का आचार है " ऐसा विचार कर और “ खाली हाथसे प्रभु के पास कैसे जाऊँ " यह सोचकर इंद्र एक बड़ा ईखका गन्ना लेकर नाभिकुलकर की गोद में बैठे हुए प्रभु के पास आकर खड़ा हुआ । उसवक्त ईख का गन्ना देख
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