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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी
बनुवाद। ॥१११॥
यावत द्वारवती-द्वारिका नगरी के मध्यभाग में से निकल कर रैवत नामक उद्यान की ओर जाते हैं। वहाँ जाकर || सातवा अशोक वृक्ष के नीचे पालकी ठहरवा कर उससे नीचे उतरते हैं, फिर अपने हाथ से वस्त्राभूषण उतारते हैं और व्याख्यान. अपने ही हाथ से पंचमुष्टि लोच कर, चौवीहार छठ की तपस्या कर के चित्रा नक्षत्र में चंद्र योग आजाने पर इंद्र का दिया एक देवध्य वस्त्र ले कर एक हजार पुरुषों के साथ गृह का त्याग कर श्री नेमिकुमार अणगारता को प्राप्त हो गये अर्थात् दीक्षित हो गये।
अर्हन श्रीनेमिनाथ प्रभु चौपन अहोरात्र तक निरन्तर शरीर को बुसरा कर रहे थे। पंचावनवें दिनरात्रि में वर्तते हुए वर्षाकाल के तीसरे मास में, पांचवें पक्ष में, अर्थात् आश्विन मास की अमावास्या के दिन, दिन के पिछले पहर में, गिरिनार पर्वत के शिखर पर, वेतस नामक वृक्ष के नीचे चौवीहार अट्ठम का तप किये हुए, चित्रा नक्षत्र में चंद्र योग आने पर शुक्लध्यान के प्रथम के दो भेदों का ध्यान करते हुए प्रभु को केवलज्ञान और केवलदर्शन पैदा हुआ। अब वे सर्व जीवों के भावों को जानते और देखते हुए विचरने लगे।
इस तरह जब प्रभु को रैवताचल पर सहस्राम्रवन में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब उद्यानपालकने श्रीकृष्ण देव के पास जाकर बधाई दी । सुन कर श्रीकृष्ण महाराज बड़े भारी आडम्बर से प्रभु को वन्दन करने आये । उस वक्त राजीमती भी वहाँ आई। प्रभु की धर्मदेशना सुनकर वरदत्त राजाने दो हजार राजाओं के साथ व्रत ग्रहण किया-दीक्षा ली। श्रीकृष्ण महाराज द्वारा राजीमती के स्नेह का कारण पूछने पर प्रभुने धनवती के भवसे
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