________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir
भी
छट्ठा व्याख्यान.
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद ।
॥९
॥
परिणत जो उपयोगात्मक आत्मा है वह हेतुभूत घटादि से ही उत्पन्न होता है, क्यों के परिणाम को घटादिक का सापेक्षपन रहा हुआ है, इस तरह भूतरूप घटादिक वस्तुओं से उनका उपयोगात्मक जीव पैदा होकर उनमें ही विलीन होजाता है, अर्थात् उन घटादिवस्तुओं के नाश होजाने पर उनके निमित्तसे उत्पन्न हुआ उपयोगात्मक आत्मा भी नष्ट होजाता है और दूसरे उपयोगतया उत्पन्न होता है। इस कारण प्रेत्यसंज्ञा नहीं रहती। अर्थात् घटादि वस्तुओं के आकार नष्ट होकर किसी दूसरे रूपमें परिवर्तित होने पर तजन्य उपयोगात्मक आत्मा भी नष्ट होकर किसी दूसरे रूपमें परिवर्तित होजाता है, इस लिए घटादि के उपयोगरूप पहली संज्ञा नहीं रहती। क्यों कि वर्तमान उपयोगतया घटादि की संज्ञा नष्ट होचुकी है । तथा यह आत्मा ज्ञानमय है और जो दम, दान, एवं दया इन तीनों दकारों को जाने वह जीव-आत्मा, तथा भोग्य और भोक्ता भाव से भी शरीर भोग्य
और आत्मा उसका भोक्ता है । जैसे चावल भोग्य है तो उसका भोक्ता भी है । इत्यादि अनुमान से भी आत्मा सिद्ध होता है। तथा जैसे दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठमें अग्नि, पुष्प में सुगन्ध और चंद्रकान्त में अमृत रहता है त्यों यह आत्मा भी शरीर में पृथक् रहता है। इस प्रकार प्रभुवचनों से संदेह नष्ट होजाने पर इंद्रभूतिने पाँचसो शिष्यों सहित प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण करली । उसी वक्त प्रभु के मुखसे " उपनेइ वा, विगमेह वा और धुवेइ वा" यह त्रिपदी प्राप्त कर उन्होंने द्वादशांगी की रचना की ।
इति प्रथम गणधर समाधान ।
॥९
॥
For Private And Personal