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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir भी व्याख्यान. हिन्दी बनुवाद। ॥८९॥ तो क्या यह चंद्रमा है ? नहीं वह तो कलंक युक्त है। तो क्या सूर्य है ? नहीं वह भी नहीं क्यों कि सूर्य तो तीव्र कान्तिवाला है। तो क्या मेरु है ? नहीं वह तो नितान्त कठिन है। तो क्या यह कामदेव है ? नहीं काम- देव तो शरीर रहित है। हाँ अब मैंने जाना यह दोष रहित और सर्वगुणसंपन्न अन्तिम तीर्थकर है। सुवर्ण सिंहासन पर बैठे इंद्रो से पूजित श्रीवीरप्रभु को देखकर इंद्रभूति सोचने लगा कि-अब मैं पूर्वोपार्जन किया | महत्व किस तरह रख सकंगा ? एक कीलिका के लिए मैंने महल को गिराने की इच्छा की। एक को न जीतने से मेरी क्या मानहानि होती थी ? मैं जगत को जीतनेवाला हूँ ऐसा नाम अब कैसे रख सकूँगा? अहो मैंने यह विचार रहित कार्य किया है जो मैं मन्दबुद्धि इस जगदीश के अवतार को जीतने आया हूँ ? अब मैं किस तरह इसके पास जाऊँ और कैसे बोल सकूँगा ? अब मैं संकट में पड़ा हूँ। अब तो शिवजी ही मेरे यश की रक्षा करेंगे । यदि कदाचित् भाग्योदय से मेरी यहाँ जीत हो जाय तो मैं विश्वभर में पंडित शिरोमणि कहलाऊँ । इस प्रकार विचार करते हुए इंद्रभूति को प्रभुने उसका नाम और गोत्र उच्चारणपूर्वक अमृत तुल्य मीठी वाणी से बुलाया-हे गौतम इंद्रभूति ! तू यहाँ सुखपूर्वक आया है ने ? प्रभु का यह वचन सुन वह सोचने लगा-अरे ! यह क्या ! ? यह तो मेरा नाम भी जानता है !!! अथवा तीन जगत में विख्यात मेरा नाम कौन नहीं जानता? क्या सूर्य किसी से छिपा रहता है ? यदि यह मेरे मनमें रहे हुए गुप्त संदेहों को कह बतलावे तो मैं इसे सर्वज्ञ मानें । इस तरह विचार करते हुए इंद्रभूति को श्री महावीर प्रभुने कहा-क्या तेरे ॥८९॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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