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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir व्याख्यान. श्री कल्पसूत्र हिन्दी मनुवाद । उस वक्त प्रभु को वन्दन करने के लिए आते हुए सुर और असुरों को देखकर वे ब्राह्मण विचारने लगे कि अहो ! इस यज्ञ की महिमा कैसा है ? ! जहाँ पर साक्षात् देवता आ रहें हैं। परन्तु यज्ञमंडप तजकर उन्हें बाह्योद्यान में प्रभु की तरफ जाते देख उन्हें अत्यन्त खेद हुआ। मनुष्यों से यह सुनकर कि वे सब सर्वज्ञ प्रभु को वन्दन करने जा रहे हैं। इंद्रभृति क्रोधित हो विचारने लगा-मेरे सर्वज्ञ होते हुए क्या दूसरा भी कोई अपने | आपको सर्वज्ञ कहलाता है !!! कान से न सुनने योग्य ऐसा कटु वचन मुझ से कैसे सुना जाय ? कदाचित् | कोई मुर्ख मनुष्य तो धूर्त से ठगा जासकता है परन्तु इसने तो देवताओं को भी ठग लिया है जो वे देव यज्ञमंडप और मुझ सर्वज्ञ को छोड़कर वहाँ जा रहे हैं! देवो, तुम क्यों भ्रान्ति में पड़ गये जो तीर्थजल को त्यागनेवाले कौवों के समान, तालाव को त्यागनेवाले मेंडक के समान, चंदन को त्यागनेवाली मक्खियों के समान, श्रेष्ठ वृक्ष को त्यागनेवाले ऊँटों के समान, खीरान को त्यागनेवाले सूवरों के समान और सूर्यप्रकाश को त्यागने. वाले उल्लुओं के समान यज्ञ को त्याग कर वहाँ चले जा रहे हो! अथवा जैसा वह सर्वज्ञ होगा वैसे ही ये देव हैं अतः समान ही योग मिल गया है। कहा भी है कि भ्रमर आम्रवृक्ष के मौर पर गुंजारव करता है और कौवे आतुर होकर नीम के मौर पर जाते हैं। तथापि मैं उसके सर्वज्ञपन के आरोप को सहन न करूंगा। क्या आकाश में दो सूर्य रह सकते हैं ? या एक म्यान में दो तलवार रह सकती हैं ? इसी तरह मैं और वह दोनों सर्वज्ञ कैसे रह सकते हैं? U॥८६॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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