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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir भी कस्पसत्र बनुवाद। ॥८३॥ रहित तथा द्रव्यादि से रहित, छिन्नग्रंथ-सुवर्णादि कि ग्रंथि से रहित हुए। द्रव्य भावरूप मल के निर्गमन से निरुपमेय हुए, उस में द्रव्यमल-शरीर से उत्पन्न होनेवाला मैल तथा भावमल-कर्म से उत्पन्न होनेवाला मल IN व्याख्यान. उन दोनों से रहित हुए । जिस तरह काँसी का पात्र पानी से मुक्त रहता है वैसे ही प्रभु भी स्नेहादि जल से विमुक्त रहता है। शंख के समान रागादि से न रंगे जाने के कारण निरंजन हुए। जीव के समान सब जगह स्खलना रहित गति करनेवाले, आकाश के समान निरालम्बन, वायु के समान अप्रतिबद्ध विहारी, शरद् ऋतु के जल के समान निर्मल, विशुद्ध हृदयवाले, कमलपत्र पर जैसे लेप नहीं लगता त्यों प्रभु को भी कर्म लेप नहीं लगता। कछवे के समान गुप्तेंद्रिय, गेंडे के सींग के समान मात्र एकले ही, पक्षी के समान परिवार रहित, भारंड पक्षी के समान प्रमाद रहित, भारंड पक्षी के युग्म का एक ही शरीर होता है परन्तु दो मुख होने से दोही गरदन होती है, पैर तीन होते हैं, मनुष्य की भाषा बोलनेवाला होता है, दोनों मुख से खाने की इच्छा होने से उसकी मृत्यु होजाती है अतः वह अत्यन्त अप्रमादी सावधान रहकर जीता है। हाथी के समान कर्मरूप शत्रुओं को हणने में समर्थ, वृषभ के समान अंगीकृत व्रतमार को वहन करने में समर्थ परिषजहादिरूप पशुओं से अजित सिंह के समान, मेरुपर्वत के समान अचल, समुद्र के समान गंभीर, हर्ष शोक के प्रसंगों में समानमावधारी, चंद्रमा के समान शीतल, सूर्य के समान देदीप्यमान तेजस्वी, पृथ्वी के समान J सहनशील । घी आदि से भली प्रकार सिंचित किये हुए अग्नि के समान तेज से जाज्वल्यमान हुए प्रभु को ॥८३॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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