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व
पांचवां व्याख्यान.
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद
॥७३॥
अपने पति से लड़ी हुई थी। इस बनाव से अत्यन्त लजित हो वह नैमित्तिक एकान्त में प्रभु के पास आकर बोला-प्रभो! आप तो विश्वपूज्य हो और सर्वत्र पूजा पाओगे परन्तु मेरी आजीविका तो यहाँ ही है। प्रभु उसकी अप्रीति जान वहाँ से विहार कर गये। .
चंडकौसिक का उपसर्ग वहां से श्वेताम्बनगरी की तरफ जाते हुए लोगों के निषेध करने पर भी कनखल नामक तापस के आश्रम में प्रभु चंडकौशिक को प्रतिबोध करने के लिए पधारे ।
वह चंडकौसिक पूर्वभव में महातपस्वी साधु था। पारने के दिन गोचरी जाते हुए मेंडकी की विराधना होगई | थी, उसका प्रायश्चितपूर्वक प्रतिक्रमण करने के लिए ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण के समय, गोचरी प्रतिक्रमण के वक्त | और संध्या प्रतिक्रमण के समय एवं तीन दफा किसी छोटे शिष्यने याद करा देने से क्रोधित हो वह उस छोटे शिष्य को मारने के लिए दौड़ा। परन्तु बीचमें एक स्तंभ से टकरा कर मरके ज्योतिष देवतया उत्पन्न हुआ। वहाँ से चवकर उस आश्रम में पाँच सौ तापसों का चंडकौसिक नामा महन्त बना । वहाँ पर भी आश्रम के
फलों को तोड़ते हुए राजकुमारादिकों को देख गुस्से होकर उन्हें मारने के लिए हाथ में कुल्हाड़ी लेकर पीछे CI दौड़ा, परन्तु रास्ते के एक कुवे में पड़जाने से क्रोध युक्त मरकर उसी आश्रम में पूर्वनामवाला दृष्टिविष सर्प
बना । वह सर्प प्रभु को ध्यानस्थ अपने बिल पर खड़ा देख क्रोधायमान हो सूर्य की ओर देख देखकर प्रभु
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