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में उपस्थापना-बड़ी दीक्षा से लेकर दीक्षा-पर्याय गिना जाता है और बाईस तीर्थंकरों के साधुओं में निरतिचार | चारित्र होने से प्रथम दीक्षा के दिन से ही दीक्षापर्याय गिना जाता है । अब पिता और पुत्र, माता और पुत्री, राजा तथा मंत्री, सेठ और मुनीम आदि यदि साथ ही दीक्षा लेवें तो उन्हें गुरु लघुत्वका वर्ताव कैसा करना चाहिये सो कहते हैं:-यदि पिता आदि गुरु जनों और पुत्रादि लघु जनोंने साथ ही दशवकालिक सूत्र का चतुर्थ अध्ययन तक पठन और योगोद्वहन कर लिया हो तो उन्हें अनुक्रमसे ही स्थापित करना उचित है। | यदि उसमें कुछ थोड़ा अन्तर हो, तो भी पुत्रादि को विलंब कराकर पितादि को ही बड़ा रखना योग्य है।
ऐसा न किया जायतो पिता आदि को छोटे होने के कारण पुत्रादि पर अप्रीति होने की सम्भावना है। यदि पुत्रादि बुद्धिमान् हों और पितादि स्थूल बुद्धि हों और उन दोनों में अधिक अन्तर हो तो उन्हें इस प्रकार समझाना चाहिये-" हे महानुभाव ! तुम्हारा पुत्र बुद्धिमान होते हुए भी दूसरे बहुत से साधुओं से छोटा हो जायगा। यदि आपका पुत्र बड़ा गिना जाय तो इसमें आप का ही गौरव है" इस प्रकार समझाने पर यदि वह समझ जाय और अनुज्ञा देवे तो पुत्रादि को बड़ा स्थापन करना चाहिए। यदि न स्वीकार करे तो जैसे हैं वैसे ही क्रम से स्थापन करना संगत है । यह सातमा ज्येष्ठ आचार है।
८.प्रतिक्रमण कल्पअतिचार लगे या न लगे तथापि श्रीऋषभदेव और श्रीवीर प्रभु के मुनियों को दोनों समय अवश्यमेव
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