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तरह पूजा करूँ, तीर्थंकरों की पूजा रचाऊं, विशेषतया संघ का वात्सल्य करूं, सिंहासन पर बैठ कर उत्तम छत्र मस्तक पर धारण कराऊं, उत्तम सफेद चामर अपने आसपास दुलाऊं, सब पर आज्ञा चलाऊं और राजा लोग आकर मेरे पादपीठ को नमस्कार करें, हाथी के मस्तक पर बैठ कर जब सामने पताकायें फरहा रही हों, वाजिंत्रों के नाद से दिशायें गूंज रही हों और आगे जनसमुदाय जय २ शब्द कर रहे हों तब मैं हर्षित हो कर उद्यान की पाप रहित क्रीड़ा करूं । सिद्धार्थ राजा ने त्रिशला क्षत्रियाणी के पूर्वोक्त समस्त मनोरथ पूर्ण किये । उस के किसी भी दोहले की अवगणना नहीं की। अब ज्यों गर्भ को बाधा न पहुंचे त्यों स्तंभ आदि का अवलम्बन लेती हुई, सुख से निद्रा करती हुई, उठती हुई, सुखासन पर बैठती हुई, तथा निद्रा विना भी शय्या पर लेटती हुई, जमीन पर विहार करती हुई सुखपूर्वक गर्भ को धारण करती है।
प्रभु महावीर का जन्म । उस काल और उस समय में श्रमण भगवन्त श्री महावीर के गर्भ में आये बाद ग्रीष्म ऋतु का पहला महीना, दूसरा पक्ष-चैत्र मास की शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के दिन नव मास पूर्ण होने पर तथा सातवीं आधिरात होने पर अर्थात् नव मास और साढ़े सात दिन संपूर्ण होने पर त्रिशला माताने पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार | सब तीर्थंकरों की गर्भवास स्थिति का समान काल नहीं है । ऋषभदेव प्रभु नव मास और चार दिन गर्भ में
रहे, अजितनाथ प्रभु आठ मास पच्चीस दिन गर्भ में रहे, संभवनाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में रहे,
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