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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir न अति सूके, सर्व ऋतु में सुखकारी इस प्रकार के भोजन, आच्छादन, गन्ध और पुष्पमाला आदि से पोषण करने लगी। क्यों कि गर्भ के लिये अति शीतादि पदार्थ हानिकारक होते हैं । उन में कितने एक वायु करनेवाले, कितने एक पित्त करनेवाले और कितने एक कफ करनेवाले होते हैं। वाग्भट्ट नामक वैद्यक ग्रन्थ में भी कहा है कि-वायुवाले पदार्थ खाने से गर्भ कुबड़ा, अन्धा, जड़ तथा वामनरूप होता है। पित्तवाले पदार्थ भक्षण करने से गर्भ स्खलित, पीला तथा चित्रीवाला होता है । कफवाले पदार्थ भक्षण करने से पाण्डु रोगवाला होता है। अति क्षारवाला भोजन नेत्र को हणता है, अति ठंड़ा भोजन पवन को कोपायमान करता है। अति उष्ण बल को हरता है, अति कामविकार जीवित को हरता है । मैथुन, यान, वाहन, मार्गगमन, स्खलना पाना, गिर पड़ना, पीड़ा का होना, अति दौड़ना, किसी के साथ टकराना, विषम स्थान पर सोना, विषम जगह पर बैठना, उपवास करना, वेग का विघात होना, रूखा तीखा और कड़वा भोजन करना, अति राग, अति शोक करना, अति खारी वस्तुओं का सेवन करना, अतिसार, वमन, जुलाब, हुचकी लेना और अजीर्ण आदि से गर्भ अपने बन्धन से मुक्त हो जाता है। किस ऋतु में कौन सी वस्तु खाने में गुणकारी होती है सो बतलाते हैंवर्षा ऋतु में नमक खाना अमृत के समान है, शरद ऋतु में पानी अमृत तुल्य, हेमन्त में गोदुध अमृत तुल्य, शिशिर में खट्टा भोजन अमृत तुल्य है । वसन्त में घी खाना अमृत तुल्य है । तथा अन्तिम ऋतु में गुड़ का भोजन अमृत समान है। अब त्रिशला क्षत्रियाणी रोग, शोक, मोह, भय और परिश्रमादि रहित सुख से रहती For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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