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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
| चौथा व्याख्यान.
अनुवाद ।
॥४८॥
ऋतु का क्या दोष है ? ऊँचे वृक्ष को फल यदि ठिंगना मनुष्य नहीं तोड़ सकता तो उसमें वृक्ष का क्या दोष है ? इस लिए हे प्रभो! यदि मैं अपने इच्छित को नहीं कर सकती तो इसमें आपका क्या दोष है ? यह तो मेरे ही कर्म का दोष है। क्यों कि सूर्य के प्रकाश में भी यदि उल्लू नहीं देख सकता तो इस में सूर्य का क्या दोष है ? इस लिए अब मुझे मरण का ही शरण है, निष्फल जीवन जीने से क्या लाभ ? इस प्रकार त्रिशला के विलाप को सुन कर तमाम सखियाँ और सकल परिवार रुदन करने लगा। अरे यह क्या होगया! निष्कारण ही दैव दुश्मन बन गया ! हे कुलदेवियो! आप इस समय कहाँ चली गई ! आप भी उदास होकर क्यों बैठी हैं ? ऐसे बोलती हुई कुल की विचक्षण वृद्धा स्त्रियाँ शान्ति, मंगल, उपचार तथा मानतायें मानने लगीं। ज्योतिषियों को बुला कर पूछने लगी, तथा अति ऊंचे स्वर से कोई बोल न सके ऐसे इसारे करने लगी। उत्तम बुद्धिवाला राजा सिद्धार्थ भी लोगों सहित शोकातुर हो गया । एवं समस्त मंत्री लोग भी कर्तव्यविमूढ बन गये ।
उस समय सिद्धार्थ राज का राजभवन कैसा हो गया था सो सूत्रकार स्वयं कथन करते हैं । सिद्धार्थ राजा का भवन मृदंग, तंत्री, वीणा और नाटक के पात्रों से रहित होगया था। विमनस्क होगया था। श्रमण भगवन्त श्री महावीर प्रभु गर्भ में रहे हुये पूर्वोक्त वृत्तान्त अवधिज्ञान से जान कर विचारने लगे कि क्या किया जाय ? मोह की कितनी प्रबल गति है। दुष धातु को गुण करने के समान मेरा गुण किया हुआ भी दोष ही बन गया । मैंने तो माता के सुख के लिए ऐसा किया था परन्तु यह उलटा उस के खेद के लिए हो गया। यह
॥४८॥
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