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सिद्धार्थराय त्रिशला सुत नित्य वन्दो, आनंदकारक सदा चरणारविंदो; जे शासनेश्वरतणो उपकार पामी, पूनुं प्रभु चरण श्री महावीरस्वामी ॥ २८ ॥
अथ श्री रत्नाकर पच्चीशीनी स्तुति । कल्याणलच्छि सुखना शुभ केलिधाम, इन्दे सुरेन्द नरदेव पदाभिराम; सर्वज्ञ ने अतिशयादि सुज्ञानवन्त, हे तीर्थनाथ ! जयवन्त सदा भदंत ॥१॥ दुर आ भवविकार निवारनार, आधार लोक त्रयना करुणावतार; भोला दिले तुम कने अरजी उच्चारूं, जाणो जिनेश सवि अंतर रूप मारुं ॥ २ ॥ क्रीडा समेत शिशु मात-पितानी पास, बोले न शुं हृदयमां धरतो विकास; तो हुँ यथार्थ निज अंतर खेद साथ, बोलुं जिनेश निज वितक वात नाथ ! ॥ ३॥ दीधुं न में त्रिजगदीश सुपात्र दान, सेव्युं न शील मनहारि तपो विधान; सद्भाव आ भव विषे न थयो अमंद, हुँ तो मुधा बहु भम्यो भवमां जिणंद ॥ ४ ॥
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