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स्वर्गापगा-स्वस्रीय
८९२ मंदाकिनी। -तरु-पु० कल्पवृक्ष । -द-दायक-वि० सर्राफ सोनेका व्यापारी। -वर्ण-वि० सोनेके रंगका। स्वर्ग प्रदान करनेवाला । -धाम -पु० स्वर्गलोक । पु० हलदी; हरताल, पीला गेरू। -वर्णा-स्त्री० हरिद्रा; -धेनु-स्त्री० कामधेनु । -नदी-स्त्री. आकाशगंगा। दारुहलदी । -विद्या-स्त्री० सोना बनानेकी विद्या, -पति-पु० इंद्र। -पुरी-स्त्री० अमरावती। -प्रद- | कीमियागरी। बि० दे० 'स्वर्गद'। -भर्ता(त)-पु० स्वर्गपति, इंद्र । स्वर्णक-पु० [सं०] सोना । वि० सोनेका, सुनहला । -लाभ-पु० स्वर्गकी प्राप्ति; मृत्यु । -लोक-पु० देव- स्वर्णिम-वि० [सं०] सोनेका; सुनहला। लोक । -वधू-स्त्री० अप्सरा। -वाणी-स्त्री० आकाश- स्वर्णोपधातु-स्त्री० [सं०] सोनामक्खी । वाणी। -वास-पु० स्वर्गमें निवास करना; मरना। स्वल्प-वि० [सं०] बहुत थोड़ा, अत्यल्प; बहुत छोटा [मु०-वास होना-मरना] -वासी(सिन्)-वि० तुच्छ; संक्षिप्त । -चटक-पु० गौरैया। -जंबुक-पु० स्वर्गमें निवास करनेवाला; मृत । -श्री-स्त्री० स्वर्गका लोमड़ी। -दृष्टि-वि० अदूरदशी। -भाषी (षिन्)वैभव ! -संपादन-पु० स्वर्गकी प्राप्ति । -सुख-पु० वि० कम बोलनेवाला, मितभाषी । -विरामज्वर-पु० स्वर्गमें प्राप्त होनेवाला सुख । -स्त्री-स्त्री० अप्सरा।। वह ज्वर जो बीच-बीचमें कम पड़ जाता हो। -व्यक्ति -स्थ-वि० स्वर्गमें स्थित, मृत । -स्थित-वि० दे० तंत्र-पु० चंद लोगोंका शासन (ओलिगाकी)। शरीर'स्वर्गस्थ'।
वि० बहुत छोटे कदका, ठिंगना। -स्मृति-वि० जिसे स्वर्गापगा-स्त्री० [सं०] मंदाकिनी, स्वगंगा ।
बहुत कम याद रहे। स्वर्गाभिकाम-वि० [सं०] स्वर्गकी अभिलाषा करनेवाला। स्वल्पांगुलि-स्त्री० [सं०] कनिष्ठिका, कानी उँगली। स्वर्गारूढ-वि० [सं०] स्वर्ग गया हुआ ।
स्वल्पायु (स)-वि० [सं०] अल्पजीवी । स्वर्गारोहण-पु० [सं०] स्वर्गगमन, मरना।
स्वल्पाहार-वि० [सं०] थोड़ा खानेवाला। स्वर्गिक-वि० स्वर्गीय ।
स्वल्पिष्ठ-वि० [सं०] थोड़ेसे थोड़ा; छोटेसे छोटा । स्वर्गी(गिन्)-वि० [सं०] स्वर्ग-संबंधी; स्वर्गीय; स्वर्गको स्वल्पेच्छ-वि० [सं०] जिसकी इच्छाएँ बहुत कम हों, जाननेवाला; स्वर्गगामी, मृत । पु० देवता।
संतोषी। स्वर्गीय-वि० [सं०] स्वर्गका; अलौकिका स्वर्गवासी, मृत । | स्ववरन*-पु० सुवर्ण । स्वर्ग्य-वि० [सं०] स्वर्ग दिलाने, स्वर्गकी प्राप्ति कराने स्वशुर-पु० दे० 'श्वशुर'। वाला; स्वर्ग-संबंधी।
स्वसा (स)-स्त्री० [सं०] बहिन । स्वर्जिका-स्त्री० [सं०] सज्जी। -क्षार-पु० सज्जीखार। स्वस्ति-० [सं०] 'कल्याण हो' इस अर्थका आशीर्वाद स्वर्जी(र्जिन)-पु० [सं०] सज्जी; शोरा ।
दान-स्वीकारका मंत्र । स्त्री० कल्याण ब्रह्माकी एक पली। स्वर्ण-पु० [सं०] अग्नि-विशेष, सोना नामकी धातु -कर्म (न)-पु० कल्याण करना ।-कार-पु० स्वस्तिका सोनेका सिका; एक तरहका गेरू, धतूरा, नागकेशर । उच्चारण करनेवाला बंदीजन। -पाठ-पु. 'स्वस्ति नः' -कदली-पु० सोनकेला। -कमल-पु० रक्तपम ।। आदि मंत्रका पाठ । -मुख-वि० जिसके मुखपर स्वस्ति -काय-पु० गरुड़ । वि० सोने जैसी देहवाला। -कार, शब्द हो। पु० ब्राह्मण; स्तुतिपाठक। -वचन-पु० -कारक-पु० सुनार । -कूट-पु. हिमालयकी एक स्वस्ति शब्दका उच्चारण । -वाचक-पु. आशीर्वाद चोटी -कृत्-पु० सुनार । -केतकी-स्त्री० पीले रंगकी आशीर्वाद देनेवाला व्यक्ति। -वाचन,-वाचनक-पु. केतकी। -क्षीरिणिका,-क्षीरी-स्त्री० सत्यानासी। - यश या मंगलकार्य आरंभ करते समय किया जानेवाला गिरि-पु० एक पर्वत, सुमेरु ।-गैरिक-पु. एक तरहका। एक धार्मिक कृत्य; ऐसे अवसरपर ब्राह्मणको दी जानेवाली पीला गेरू। -चूड,-चूडक-पु० नीलकंठ; मुर्गा । दक्षिणा आदि । -वाचनिक-वि० आशीर्वाद देनेवाला, -चूल-पु० दे० 'सुवर्णचूड'। -ज-पु. राँगा। वि० कल्याण मनानेवाला । पु० दे० 'स्वस्तिवाचन'। सोनेसे उत्पन्न । -जीवी(विन)-पु० सुनार ।-जूही- स्वस्तिक-पु० [सं०] चारणोंका एक प्रकार (जो स्वस्तिस्त्री० [हिं०] पीली जूही। -तीर्थ-पु० एक प्राचीन पाठ करता है); कोई मंगलद्रव्य; एक मंगलचिह्न जो तीर्थ । -दीधिति-पु०अग्नि ।-द्वीप-पु०सुमात्रा द्वीप ।। शरीर या किसी पदार्थपर बनाया जाता है (5); नष्ट -धातु-स्त्री० सोना; पीले रंगका गेरू । -पत्र-पु० शल्य निकालनेका एक प्राचीन यंत्र; एक योगासन । - सोनेका पत्तर । -पत्री-स्त्री० सनाय । -पुरी-स्त्री० यंत्र-पु० नष्ट शल्य निकालनेका एक प्राचीन यंत्र । लंका। -प्रतिमा-स्त्री० सोनेकी मूर्ति । -फल-पु० स्वस्तिमती-स्त्री० [सं०] एक मातृका । वि०स्त्री०कल्याणी । धतूरा । -फला-स्त्री० पीत रंभा, चंपाकेला । -बंध,- स्वस्तिमान् (मत्)-वि० [सं०] सुखी, सौभाग्ययुक्त । बंधक-पु० सोना गिरवी रखना। -माक्षिक-पु० स्वस्ययन-पु० [सं०] कृत्य-विशेषके आरंभमें विघ्नशांतिएक उपधातु, सोनामक्खी । -मुखी-स्त्री० सनाय की कामनासे किया जानेवाला मंत्रोच्चार या प्रायश्चित्त-मुद्रा-स्त्री० सोनेका सिका । -युग-पु० सुख- विधान; समृद्धिप्राप्तिका साधन; किसी मांगलिक कृत्यमें समृद्धिका समय । -यूथिका-यूथी-स्त्री० पीली जाते समय दलके आगे-आगे ले जाया जानेवाला जलपूर्ण जूही। -रंभा-स्त्री०.चंपाकेला । -रेखा-स्त्री० सोनेकी कलश; दान स्वीकारके बाद ब्राह्मणका आशीर्वाद देना। लकीर (कसौटीपरकी); एक नदी । -लाम-पु० वि० मंगलकारक । स्वर्णकी प्राप्ति; एक अस्त्र-मंत्र । -वणिक् (ज)-पु० / स्वस्स्रीय-पु० [सं०] बहिनका बेटा, भानजा।
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