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रस मुँहाँ - रद
रतमुँहाँ* - वि० लाल मुँहवाला | पु० बंदर | रताना * - अ० क्रि० रत होना । स० क्रि० अपने में रत करना ।
रति - * अ० दे० 'रती' । स्त्री० [सं०] दक्षप्रजापतिकी कन्या, कामदेवकी पत्नी; प्रेम, अनुराग, प्रीति, आसक्ति; संभोग, मैथुन, सौंदर्य, शोभा; शृंगार रसका स्थायी भाव; वह कर्म जिसके उदयसे मन प्रसन्न हो; रहस्य, गुप्त भेद; सौभाग्य । - कर - वि० आनंदवर्द्धक; प्रेमवर्द्धक । पु० एक समाधि । - कलह - पु० संभोग, मैथुन । -कांतपु०कामदेव । - कुहर - पु० योनि, भग। केलि, क्रिया - स्त्री० संभोग । -ज-रोग-पु० ( वेनीरियल डिजीज ) संभोग से उत्पन्न या संक्रमित रोग । ज्ञ- पु० वह जो रतिक्रिया में प्रवीण हो; स्त्री में अपने प्रति प्रेम उत्पन्न करनेमें दक्ष पुरुष । -दान-पु० प्रसंग, संभोग | - नाथ, नायक, पति-पु०कामदेव । - नाह* - पु० कामदेव । - प्रिय-पु० कामुक । -बंध- पु० संभोगका ढंग, प्रकार, आसन ।-बंधु-पु० पति; नायक - भवन, - मंदिर - पु० प्रेमी-प्रेमिकाका रति-क्रीड़ागृह | - भाव - पु० स्त्री-पुरुषका परस्पर अनुराग, दांपत्यभाव (शृंगारका स्थायी भाव); प्रीति, अनुराग । - भौन* - पु० दे० 'रतिभवन' | - राइ* - पु० कामदेव । -शक्तिस्त्री० संभोगशक्ति |
रतिक* +- अ० थोड़ासा, जरासा, रत्तीभर । रतिवंत* - वि० खूबसूरत, सुंदर ।
रती - * स्त्री० रति, कामदेवकी पत्नी; छवि, शोभा; संभोग; दे० 'रति'; + ढाई जौ या आठ चावलका मान घुँघची, गुंजा | अ० थोड़ा कम, जरा, जरासा, रत्तीभर, किंचित् । रतीकौ * - अ० रत्तीभर भी, जरा भी - 'केहू न छाँडत भूमि रतीकौ' - राम० ।
रतीश - पु० [सं०] कामदेव |
रतोपल* - पु० लाल कमल; गेरू; लाल सुरमा । रतौंधी - स्त्री० एक नेत्र रोग जिसमें रोगीको रात के समय नहीं सूझता ।
रत्त* - पु० दे० 'रक्त' ।
रक्तक- पु० कुछ-कुछ लाल रंगका एक पत्थर ।
रत्ती - स्त्री० ढाई जौ या आठ चावलका एक मान; घुँघची; * सौंदर्य, शोभा ।
रत्थी - स्त्री० लकड़ी, बाँसका ढाँचा, संदूक आदि जिसपर रखकर शवको अंतिम संस्कार के लिए ले जाते हैं, टिकठी, अरथी, विमान ।
रत्न- पु० [सं०] बहुमूल्य और चमकीले पदार्थ विशेषतः खनिज पत्थर जिन्हें आभूषणों में जड़ते हैं, हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, लाल, जवाहर, नगीना आदि (मुख्य रत्न नौं हैं - माणिक, नीलम, लहसुनिया, हीरा, पन्ना, पुखराज, मूँगा, मोती, गोमेद); अपने वर्गमें, जाति में उत्कृष्ट वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक चारित्र्य (जैन० ) । -कर्णिका - स्त्री० कानोंका एक जड़ाऊ आभूषण ( प्रा० ) । - गर्भा - स्त्री० पृथ्वी । - गिरि - पु० बिहारका एक पहाड़ ( इसपर राजगृह | राजधानी स्थित थी) । -गृह-पु० स्तूपके मध्यकी कोठरी
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जिसमें धातु रखी जाती थी (बौद्ध) । - च्छाया - स्त्री० रत्नोंकी छाया, कांति, चमक। -दीप-पु० कल्पित रत्नविशेष ( कहा जाता है, पातालमें इसीके कारण प्रकाश रहता है ); रत्नका या रत्नजटित दीपक । - निचय - पु० रत्नोंकी राशि । - निधि-पु० समुद्र; सुमेरु पर्वत; विष्णु । - परीक्षक- पु० रत्नपारखी, जोहरी । - पर्वत - पु० सुमेरु पर्वत । - पारखी पु० रत्न परखने, पहचाननेवाला | प्रदीप-पु० रत्नविशेष जिसमें दीपकासा प्रकाश हो ।
रत्नाकर - पु० [सं०] समुद्रः वाल्मीकि मुनिका पूर्व नाम; खान, मणियोंके निकलनेका स्थान; रत्नसमूह | रत्नागिरि - पु० दे० 'रत्नगिरि' | रत्नाचल-पु० [सं०] रत्नोंका ढेर या राशि; रलोंका कृत्रिम पहाड़ जिसे दानके लिए बनाते हैं ( पु० ) । रत्नाधिपति - पु० [सं०] कुबेर ।
रत्नाभूषण - पु० [सं०] रलजटित आभूषण, जड़ाऊ गहना । रत्नावली - [सं०] मणियोंकी माला, श्रेणी; एक रागिनी; . एक अर्थालंकार जहाँ प्रस्तुत अर्थ निकलने के साथ-साथ उचित क्रमसे कुछ अन्य वस्तुओं या तत्त्वों का उल्लेख होता है; एक प्रकारका हार । रत्नेश- पु० [सं०] कुबेर; समुद्र |
रथ - पु० [सं०] वाहन, गाड़ी, यान (घोड़ों आदिमे वाहित युद्ध, विहारका यान जिसमें दो या चार पहिये होते थे और दो या चार पशु नावे जाते थे); पैर, चरण; शरीर - क्षोभ-पु० रथका हिलना-डुलना । -चरण, -पादपु० रथका पहिया चकवा, चकवाक । पति-पु० रथी, रथका नायक । - महोत्सव - पु० रथयात्रा उत्सव दे० ' रथयात्रा' । - यात्रा - स्त्री० आषाढ़ शुक्ला द्वितीयाको पुरीमें होनेवाला पर्व, उत्सव जिसमें सुभद्रा, बलराम, जगन्नाथकी मूर्तियाँ रथपर निकालते हैं । - वाह-पु० सारथि; घोड़ा ।
- वाहक - पु० सारथि । -शाला - स्त्री० रथ रखनेको जगह, गाड़ीखाना। -शास्त्र- पु०, -विद्या- स्त्री० रथ चलानेकी विद्या । - सूत-पु० सारथि, रथचालक । रथवान् (वत्) - पु० [सं०] सारथि, रथ हाँकनेवाला । रथांग - पु० [सं०] रथका पहिया; चक्र, एक अस्त्र; चकवा । -पाणि- पु० चक्रपाणि, विष्णु ।
रथिक - पु० [सं०] रथका सवार, रथी ।
रथी (थिन्) - वि० [सं०] रथपर चलनेवाला । पु० योद्धा । रथोत्सव- पु० [सं०] रथयात्राका उत्सव | रथोद्धता - स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त । रथ्य-पु० [सं०] चक्र; पहिया; रथमें जुतनेवाला घोड़ा; सारथि ।
रथ्या - स्त्री० [सं०] रथका मार्ग, लीक; राजमार्ग, सड़क, प्रशस्त पथ; २०, २१ हाथ चौड़ी सड़क (प्रा० ); चौक, चौराहा; वह स्थान जहाँ कई मार्ग मिलें । यान- पु० ( ट्राम) सड़कों पर बिछायी गयी लोहेकी पतली पटरियों पर बिजली आदि की सहायता से चलनेवाली बड़ी सवारी गाड़ी ।
रद-पु० [सं०] दाँत । - च्छ्द-पु० ओष्ठ, अधर ।-छद* - पु० ओठ; दाँतोंका चिह्न (विशेषतः रतिकालका ) ।
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