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-शूली (लिन्) - पु० शिव । - श्रृंग-पु० त्रिकूट पर्वत; त्रिकोण । - संध्य- पु० दिनके तीन भाग-प्रातः, मध्याह्न और सूर्यास्त । - संध्याव्यापिनी - वि० स्त्री० प्रातः काल से संध्याकालतक रहनेवाली ( तिथि ) । - संध्या-स्त्री० तीनों संध्याएँ । - सम- पु० सोंठ, गुड़ और हड़का समाहार | वि० जिसकी तीनों भुजाएँ बराबर हों (ज्या० ) । - सर - पु० तीन लड़ियों का मुक्ताहार; खिचड़ी - स्रोता (तस् ) - स्त्री० गंगा । न्त्रिक - पु० [सं०] तीनका समाहार; रीढ़का अधोभाग जहाँ कूल्हे की हड्डियाँ मिलती हैं, कटिदेश; कंधेकी हड्डियोंके बीचका भाग; त्रिफला, त्रिकटुः त्रिमद; तीन मार्गों के मिलनेका स्थान | वि० तेहरा; तीन प्रतिशत; तीसरी बार होनेवाला । - वेदना - स्त्री०, - शूल - पु० वातके प्रकोपसे कूल्हों और रीढ़की हडडीके संधिस्थान में होने वाली पीड़ा ।
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त्रिखा* - स्त्री० 'तृषा' ।
त्रिजग* -- पु० दे० ' तिर्यक्' । - जोनि - स्त्री० दे० ' तिर्यग्योनि' । त्रोण-पु० [सं०] तरकश | त्रिदशाचार्य - पु० [सं०] वृहस्पति ।
त्रोन* - पु० दे० 'त्रोण' ।
त्रिदशाधिप - पु० [सं०] इंद्र |
त्रिदोषना * - अ० क्रि० तीनों दोषोंसे ग्रस्त होना; काम,
क्रोध और लाभके वशमें होना ।
त्रिधा - अ० [सं०] तीन तरहसे; तीन भागोंमें । वि० तीन प्रकारका । मूर्ति पु० परमेश्वर जिसकी ब्रह्मा, विष्णु और महेश- तीन मूर्तियाँ हैं ।
त्रिपिताना* - अ० क्रि० तृप्त होना । स० क्रि० तृप्त या संतुष्ट करना ।
त्रिय, त्रिया* स्त्री० स्त्री, नारी । (त्रिया) चरित्र - पु० दे० 'तिरिया चरित्तर' |
त्रिषा - स्त्री० दे० 'तृषा' |
त्रिपित*, त्रिसित - वि० दे० 'तृषित' ।
थ - देवनागरी वर्णमालाका सत्रहवाँ व्यंजन वर्ण । थंडिल * - पु० यज्ञवेदी ।
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धर्म या भाव।
वैदशिक - वि० [सं०] दैविक, ईश्वरीय | ध-वि० [सं०] तेहरा । अ० तीन प्रकार से । त्रैमातुर- पु० [सं०] लक्ष्मण |
त्रैमासिक - वि० [सं०] तीन महीनोंका; तीन महीनों में होनेवाला हर तीसरे महीने निकलनेवाला । त्रैमास्य- पु० [सं०] तीन मासका समय । त्रैराशिक - पु० [सं०] तीन ज्ञात राशियोंके सहारे चौथी • अज्ञात राशि निकाल लेनेकी रीति (ग० ) । त्रैलोक्य - पु० [सं०] दे० 'त्रिलोक' । - नाथ- पु० राम । - बंधु - पु० सूर्य ।
त्रैवर्णिक - पु० [सं०] ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य - इन तीनों वर्णों का धर्म; ये तीनों वर्ण । वि० त्रिवर्ण-संबंधी । त्रैवार्षिक - वि० [सं०] तीन वर्षोंका; तीन वर्षों में होनेवाला । त्रोटक - पु० [सं०] एक शृंगारप्रधान नाटक; एक विषैला कीड़ा; एक राग; एक छंद ।
त्रिक - थकना
त्र्यंगुल - वि० [सं०] तीन अंगुलका ।
त्र्यंजन- पु० [सं०] कालांजन, रसांजन और पुष्पांजन | त्र्यंबक - पु० [सं०] शिव । - सख- पु० कुबेर । त्र्यंबका- स्त्री० [सं०] दुर्गा |
त्वक् ( चू ) - पु० [सं०] छिलका; वल्कल; चर्म; दारचांनी; चर्म में व्याप्त रहनेवाली एक बाह्य ज्ञानेंद्रिय जो स्पर्श द्वारा अपने विषयका ज्ञान कराती है। -छेदन- पु० चर्मकर्तन; सुन्नत । - तरंगक-पु० झुरीं । - पंचक - पु० बरगद, गूलर, पीपल, सिरीस और पाकड़की छाल । afiद्रिय - स्त्री० [सं०] स्पर्शेद्रिय | त्वग्जल - पु० [सं०] पसीना ।
त्वचकना * - अ० क्रि० पचकना, भीतरकी ओर धँसना; पुराना पड़ना ।
त्रुटि - स्त्री० [सं०] कमी, कसर; भूल, चूक; अंगहीनता । त्रुटित - वि० [सं०] टूटा हुआ; खंडित ।
त्रेता - पु० [सं०] चार युगोंमें दूसरा युग - ( इसकी अवधि त्वदीय - वि० [सं०] तुम्हारा |
• १२५६००० वर्ध मानी गयी है) । त्रै * - वि० तीन ।
त्वरा - स्त्री० [सं०] शीघ्रता, जल्दी ।-लिपि-स्त्री० (शार्टहैंड) दे० 'शीघ्रलिपि' ।
त्रैकालिक - वि० [सं०] त्रिकाल -संबंधी; तीनों कालों में होने- स्वरावान् (वत्) - वि० [सं०] शीघ्रता करनेवाला; द्रुतगामी, वाला; त्रिकालवर्ती ।
तेज; प्रखर ।
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त्वचा - स्त्री० [सं०] चर्म, चमड़ा । - पत्र - पु० दारचीनी ।
कोणिक - वि० [सं०] तीन कोणोंवाला; तिपहला । त्रैगुण्य- पु० [सं०] तीनों गुणोंका समाहार; तीनों गुणों का
त्वरित - वि० [सं०] तीव्र गतिवाला, तेज । अ० तेजी से | स्वष्टा (ष्ट ) - पु० [सं०] विश्वकर्मा |
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थँभना* - अ० क्रि० सँभलना; ठहरना, रुकना । थंभित* - वि० रुका हुआ, टिका हुआ; स्तब्ध |
थंब - पु० दे० 'थंभ' । थंबी - स्त्री० चाँड़, धूनी ।
थ - पु० [सं०] पहाड़; रक्षक; खतरेका चिह्ना एक रोग । थकन - स्त्री० दे० 'थकान' ।
थंभ* - पु० स्तंभ, खंभा - 'अति अद्भुत थंभनकी दुगई' - थकना - अ० क्रि० श्रमके कारण शिथिल होना, श्रांत होना;
राम० ।
थंभन - पु० रुकावट; एक तांत्रिक प्रयोग; स्तंभन करनेवाली औषध ।
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तंग आना; सुध-बुध भूल जाना; लुभा जाना; छकना; धीमा पड़ना । थका-माँदा - वि० थका, हारा हुआ, श्रमसे शिथिल । मु० थक जाना-तंग आ जाना, परेशान हो