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अगाध-अग्नि अगाध-वि० [सं०] अथाह; अपार; अधिकदुर्बोध । अगूता*-अ० आगे; सामने । अगान-वि० अशानी, नासमझ । पु० अशान, नासमझी। अगृह-वि० [सं०] गृहहीन, बेधरबारका । पु० वानप्रस्थ । अगाम-अ० आगे।
अगेह-वि० [सं०] दे० 'अगृह' । अगार-पु० [सं०] दे० 'आगार' । अ० आगे।
अगोई*-वि० स्त्री० जो गुप्त न हो, प्रकट । अगाव-पु० ईखके ऊपरका नीरस भाग ।
अगोचर-वि० [सं०] जिसका शान इंद्रिणसे न हो सके, अगास*-पु० दे० 'आकाश' द्वारके सामनेका चबूतरा।। इंद्रियातीत; अप्रकट । पु० वह जो इंद्रियातीत हो; ब्रह्म । अगाह*-वि० अथाह; अत्यधिक; उदास, चिंतित; दे० अगोट*-पु० आड़, रोक आश्रय, सहारा सुरक्षित स्थान । 'आगाह' । अ० आगेसे, पहलेसे ।
वि० अकेला, गुटरहित सुरक्षित । अगिधा-वि० अग्निदग्ध, आगसे जला हुआ। | अगोटना*-स० क्रि० छेड़ना, धेरना; छिपा या रोक अगिदाह*-पु० दे० 'अग्निदाह'।
रखना, कैद करना; स्वीकार करना; चुनना। अ० क्रि० अगिन-स्त्री० आग; एक छोटी चिड़िया; एक घास; ऊखका रुकना; फँसना, उलझना। ऊपरका हिस्सा । वि० बहुत अधिक; अगणित । -गोला| अगोता*-अ० सम्मुख, आगे । पु० अगवानी । -पु० एक तरहका बम जिसके फटने पर आग लग जाय। अगोरना -स० क्रि० बाट जोहना;* रखवाली करना; -बाव-पु० चौपायों, विशेषकर घोड़ोंको होनेवाला एक रोकना। रोग । -बोट-पु० स्टीमर, धुआँकश ।
अगोरिया -पु० खेत आदिकी रखवाली करनेवाला । अगिनत, अगिनित-वि० दे० 'अगणित' ।
| अगौढ़ा-पु० पेशगी दी जानेवाली रकम । अगिया-स्त्री० अगिन घास । पु० एक पौधा; घोड़ों-बैलोंका अगोता*-अ० आगे। पु० अगवानी; पेशगी। एक रोग; एक रोग जिसमें पैरमें छाले पड़ जाते अगौनी*-स्त्री० दे० 'अगवानी'; बरात आनेपर द्वारहैं। -बैताल-पु० विक्रमादित्यको सिद्ध दो बैतालोंमेंसे पूजाके समय छोड़ी जानेवाली आतिशबाजी । अ० आगे । एक मुहमे आग उगलनेवाला प्रेत; दलदल आदिसे | अगौरा-पु० दे० 'अगाव' । निकलनेवाली गैस जो आगके समान जलती दिखाई | अगौह*-अ० आगे आगेकी ओर ।
अग्नि-स्त्री० [सं०] आग; पंचमहाभूतों से तेज तत्त्व अगियाना -अ० क्रि० गरम होना; उत्तेजित होना। प्रकाश; उष्णता; गरमी; जठराग्नि; पित्त; अग्निकर्म, स० क्रि० बरतनको आगमें डालकर शुद्ध करना।
जलानेकी क्रिया सोना; ३की संख्या; भिलावाँ -कणर-पु० पूजाके लिए जलायी जानेवाली आग। | पु० चिनगारी-कर्म(न)-पु० अग्निहोत्र; होम; शव+वि० जिसकी आग अधिक समयतक रहे या अधिक तेज दाह; गरम लोहेसे दागना ।-कुंड-पु० बेदी,हवनकुंड । हो (लकड़ी, कोयला इ० )।
-कुमार-पु० शिवके पुत्र कात्तिकेय; एक अग्निवर्धक अगियारी -स्त्री० धूपकी तरह अग्निमें डालनेकी वस्तु । रस । -कुल-पु० क्षत्रियोंका एक वंश जिसकी उत्पत्ति भगीठा-पु० सामनेका हिस्सा, अगवाड़ा।
अग्निकुंटसे मानी जाती है-प्रमार, परिहार, चालुक्य अगीत-पछीत*-पु० अगवाड़ा-पिछवाड़ा। अ० आगे-पीछे। या सोलंकी और चीहान । -केतु-पु० धुआँ; शिव । अगुआ-पु० आगे चलनेवाला; मुखिया; पथप्रदर्शकः । -कोण-पु०,- दिक(श)-स्त्री० पूरब और दक्खिनविवाह तय करानेवाला, बिचुआ; आगेका हिस्सा। का कोना। -क्रिया-स्त्री० शवका दाह; दागना । - अगुआई-स्त्री० नेतृत्व, मार्गप्रदर्शन; अगवानी।
क्रीडा-स्त्री० आतिशबाजी। -गर्भ-वि० जिसके भीतर अगुआना-स० क्रि० अगुआ बनाना। अ० कि० आगे आग हो या जिससे आग पैदा हो । पु० अरणि; सूर्यकांत जाना।
मणि; आतिशी शीशा। -ज,-जन्मान्मन्),-जात अगुआनी-स्त्री० आगे जाकर स्वागत करना।
-पु० सुवर्ण; कात्तिकेय; विष्णु । वि० अग्निसे उत्पन्न अगुण-वि० [सं०] निर्गुण; गुणरहित; अनाड़ी। पु० -जिह्वा-स्त्रो० आगकी लपट; अग्निकी जीमें जो ७
अवगुण, दोष । -ज्ञ-वि० जिसे गुणकी परख न हो, बतायी जाती हैं ।-जीवी(विन)-पु० अग्निके आधारमुंवार।
पर काम करनेवाले--जैसे सुनार, लुहार आदि ।-त्रयअगुणी (णिन)-वि० [सं०] गुणहीन ।
पु०,-वेता-स्त्री० यथाविधि स्थापित तीन प्रकारकी अगुरु-पु० [सं०] अगर या शीशमका पेड़ । वि० हलका अग्नि ( गाई पत्य, आहवनीय और रक्षित)। -दानलघु (वर्ग); निगुरा गुरुसे भिन्न ।
पु० चिताको आग लगाना । -दाह-पु० जलाना; शवअगुवा-पु० दे० 'अगुआ।
दाह । -दिव्य-पु० अग्निपरीक्षा । -दीपक-वि० अगुसरना*-अ० क्रि० आगे बढ़ना ।
पाचनशक्ति बढ़ानेवाला। -परीक्षा-स्त्री० अग्नि द्वारा अगुप्सारना*-स० क्रि० आगे बढ़ाना ।
परीक्षा; जलती आग, खौलते तेल आदिके जरिये किसीके अगूठना*-स० क्रि० अगोटना, घेर लेना।
दोषी-निर्दोष होनेकी जाँच; सोना-चाँदी आदिको आगमें अगूठा-पु० घेरा।
तपाकर परखना कठिन परीक्षा। -पर्वत-पु० ज्वालाअगूढ-वि० [सं०] प्रकट; स्पष्ट; सहज । -गंध-पु०, मुखी पहाड़ । -पूजक-पु० आगकी पूजा करनेवाला;
-गंधा-स्त्री० हींग । -भाव-वि० जिसका भाव, अर्थ पारसी। -प्रणयन-पु० अग्निहोत्रकी अग्निका मंत्रछिपा हुआ न हो; सरल-चित्त ।
पूर्वक संस्कार करना। -प्रवेश-पु० आगमें प्रवेश
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