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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधामृतवर्षिणीटीका अ. २ धन्यस्य विजयेन सह हडियन्धनादिकम् ६५५ कृतः, शरीरचिन्तार्थमेव तस्म संविभागः कृत इति भावः। ततःखलु मा भद्रा धन्येन सार्थवाहेन एवमुक्ता सती 'हट जात्र' हृष्टयावत्-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता हर्षवश विसपहृदया अपनात अभ्यत्तिष्ठति, अभ्युत्था, 'कंठाकले' काठाकण्ठि-कण्ठेन कण्ठं संमेल्येत्यर्थः 'अश्यासेई' आश्लिष्यति-आलिङ्गति, आदर सत्कारादिकं करोति क्षेमकुशलं कुशलवार्ता पृच्छति च । कुशलपनमोपृच्छय 'हाया' स्नाता=कृतस्नाना 'जाव' यावत् 'कयवलिकम्मा' कृतलिकर्मा=कृतं= सम्पादितं बलिकम-प्रियागमननिमित्तं पशुपक्ष्यादिप्राणिभ्योऽन्नादिदानरूपं यया सा तथा, 'कयकोउयमंगलपायच्छिता' कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता कृतं कौतुकं दृष्टिदोषादिनिवारणार्थ मपीपुण्ड्रादिकं, मङ्गलं= दुस्स्वमादिफलस्यागनिवृत्ति के भाव से उसे हमने उस चतुर्विध आहार में से विभक्त कर उसे हिस्सा दिया है (नएणं सा भदा धणेगं सत्य बाहेणं एवं वुत्ता समाणी, हट्टनाव आसणाओ अभुट्टे अभुद्वित्ता कंठाकंठि अवयासेइ, खेमकुसलं पुच्छ।) इसके बाद धन्य सार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित और संतुष्ट हृदय होती हुई वह भद्रा सार्थवाही आसन से उठ कर बैठो, उठकर उसका उसने कंठसे आलिङ्गन किया और दुःख पादिक क्षेमकुशलकी बात पूछो। (पुच्छित्ता हाया जाव पायच्छित्ता विउलोई भोगाभोगाइ भुजमाणी विहरइ) पूछकर फिर उसने स्नान किया याव। प्रयश्चित्त किया। और विपुल भोगोंको भोगते हुए वह अपना समय आनन्द से व्यतीत करने लगी। यहां "जाव" पद से (करबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) "इन पदों का मूचन किया गया है। इनका भाव यह है कि--प्रिय आगमन के निमित्ति को लेकर उसने पशु पक्षी નિવૃત્ત થવા માટે તેને હું પિતાના ચાર જાતના આહારમાંથી આહાર આપતે હતે. (तएण सा भदा धण्णेण सस्थवाहेण एवं वुत्ता समाणी हट्टनाव आसणाश्रो अन्भु इ. अन्भुटित्ता कंठाकंठि अवयासेइ, खेमकुसल पुच्छई) त्या२ मा ભદ્રા સાર્થવાહી એ ધન્ય સાર્થવાહની આ વાત સાંભળીને હર્ષિત અને સંતુષ્ટ હૃદયા થઈને તેણે ધન્ય સાર્થવાહનું આલિંગન કર્યું અને તેની ક્ષેમકુશળની વાત पूछी. (पुच्छित्ता पहाया जाव पायाच्छिता विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरड)५छीन तेणे स्नान मने प्रायश्चित्त यु. तेभ धन्य साथ वाडनी साथे વિપુલ ભેગ ભેગવતાં તેણે પિતાને વખત સુખેથી પસાર કરવા માંડે. અહીં 'जाव' ५४थी ( 'कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपयाच्छित्ता') l पहानु સૂચન કરવામાં આવ્યું છે. એને અર્થ આ પ્રમાણે છે કે તેણે પ્રિય આગમનત For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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