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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीतरीका अ. २. धन्यस्य विजयेन सह हडिबन्धनादिकम् ६४१ ष्ठापयत । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो विनयेन तस्करेणेवमुक्तः सन् 'तुसिणीए' तूष्णीकः= उदासीनतया वाग्व्यापाररहितः सम संतिष्ठति । ततः खलु तत्पश्चात् स धन्यः सार्थवाहः 'मुहतं तरम्म' मुहूर्तान्तरेण पुनः 'उच्चारपासणेणं' उच्चारपस्रवणाभ्यां 'बलियतराग' बलिततरम् अतिप्रवलम् 'उवाहिज्जमाणे' उहाध्यमान:= अतिशयेन पीडयमानो विजयं तस्करमेवमवादी-एहि तावत् हे विजय ! यावद् अपक्रामावः। ततः खलु स विजयो धन्यं सार्थवाहमेवमवादीत-यदि ग्वलु यूयं देवानुपियाः ! तस्माद् प्रस्रवण की बाधा से निवृत्त होइये। (तएणं से धण्णे सत्थवाहे विजएणं तक्करेणं एवंवुत्ते समाणे तुसिणीए संचिटइ तएणं से धण्णे सत्यवाहे मुहत्तंतरम्स बलियतराग उच्चारपासवेण उव्वाहिज्जमाण विजयं तक्करं एवं वयासी) विजय चौरने जब धन्यसार्थवाह से इस प्रकार (उलाहने के रूप में) कहा तो वह चुप हो गया। इसके बाद पुनः थोडी देर में धन्यसार्थवाह को उच्चार और प्रस्रवण की बाधा पहिले की अपेक्षा और अधिक रूपमें हुई तब उसने विजय चौर से इस प्रकार कहा-(एहि नात्र विजया ! जाव अबक्कमाभो, तएणं से धणं सत्थवाह एवं वयासी-जइण तुम देवानुप्पिया ! तओ विउलाओ असण ४ संविभाग करेहि तओ हं तुम्भेहिं सद्धिं अवकमामि) आओ. विजय-हम तुम दोनों एकान्त-निर्जन-स्थान में चले । मुझे उच्चार और प्रस्रवणे की बहत जोर से बाधा हो रही है। इस तरह धन्य सार्थवाह की बात सुनकर विजयने उससे कहा-यदि तुम हे देवानुप्रिय ! उस बिपुल भुम मेतमi rjने उच्या२प्रश्नपाणुनी भुनाथी निवृत्ति भयो. (तएणं से धण्णे सत्यवाहे विजएणं तक्करेणं एवंवुत्ते समाणे तुसिणोए संचिट्ठइ तएण से धण्णे सत्यवाहे मुहुत्तंतरस्स बलियतरागं उच्चारपासवेण उचाहिजनाणे विजयं तकरं एव वयासी) (२०४५ थोरे से रीते Set (ઠપકા) ના રૂપમાં ધન્યસાર્થવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું–--ત્યારે તે ચૂપ થઈ ગયું. ત્યાર પછી થોડા વખતે ધન્યસાર્થવાહને પહેલાં કરતાં વધારે સખત રીતે ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણની भुश्ती ली थ. त्यारे श तेणे विभय थोरने ४ह्यु (एहि ताव विजया ! जाव अबक्कमामो तएणं से धणं सत्थवाह एवं वयासी जइण तुम देवानुप्पिया ! तओ विउलाओ असण ४ संविभाग करेहि तओह तभेहिं सद्धि एगतं अवकमामि) विनय यादो भापणे मन मेत નિર્જન સ્થાનમાં જઈએ. ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણની સખત મુશ્કેલી મને થવા માંડી છે. આ રીતે ધન્ય સાર્થવાહની વાત સાંભળીને વિજયે તેને કહ્યું હે દેવાનુપ્રિય! For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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