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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधर्म कथानमत्र ___ अयं च खलु विजयस्तस्करो राजगृहस्य नगरस्य बहनि द्वाराणि च 'अवदाराणि य' अपद्वाराणि-लघुद्वाराणि च 'तहेव तथैव-पूर्ववदेवात्र सर्वस्थानानि वाच्यानि यावत् 'आभोएमाणे आभोगयन्सोपयोगमवलोकयन् माग यमाणो गवेषयमाणो यत्रौत्र देवदत्तो दारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य देवदत्तं दारकं सर्वालङ्कारविभूपितं पश्यति, दृष्ट्वा देवदत्तस्य दारकस्याभरणालङ्कारेषु 'मुच्छिए' मूच्छितः कर्तव्यव्यापारशून्यः ‘गढिए' ग्रथितः एकाग्रतामापन्नः, 'गिद्ध' गृद्धः लुब्ध 'अज्झोववन्ने' अध्युपपन्नः ममत्वबहुलः पान्थकं दाम उस देवदन दारक को एकांत में छोड़ दिया और स्वयं उन डिभक यावत् कुमारिकाओं के साथ घिरा हा होकर प्रमादवान् बन गयाअर्थात उन बालक बालिका आदिकों के साथ अन्यत्र खेलने लग गया। (इमंच णं विजए तक्करे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि दाराणि य अवदाराणि य तहेव जाव आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसेमाणे जेणेव--देव दिन्ने दारण तेणेव उवागच्छइ) इतने में विजय तस्कर राजगृह नगर के अनेक द्वारों को अनेक छोटे २ द्वारों को पहिले की तरह उपयोग पूर्वक देखता हुआ उन्हें बार २ तपासता हुआ, मूक्ष्मदृष्टि से उनकी गवे पणा करता हुआ जहां वह देवदत्त दारक था वहां आया। (उवागच्छिता देदिन्नं दारगं सव्वालंकारविभूसियं पासइ) आकर उसने देवदत्त दारक को समस्त अलंकारों से विभूषित हआ देखा। (पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मच्छिए गढिए गिद्धे अज्ञाववन्ने पंथयं दासघेडं पमत्तं पासइ) देखकर के वह देवदत के आभरण और अलंकारों में मू. बिहरद) त्यां पडाचीने तेथे वित्तने प्रभाह १५ थन Azid या भूडी દીધા અને પિતે તે બધા ડિંભક, હિંભિકા કુમાર અને કુમારિકાઓની સાથે २भतभा पी गयी. मेट , तेमनी साथे २भा सायो. (इमंच गं विजए तक करे रायगिहस्स नगरस्स बहणि दाराणि य अवदाराणि य तहेव जान आभोएमाणे गवेसमाणे जेणेव देवदिन्ने दारए तेणेव उवागच्छइ) એટલામાં વિજય નામે તે તસ્કર (ચેર) રાજગૃહ નગરના અનેક દરવાજાઓ, અનેક નાના દરવાજાઓને પહેલાંની જેમ જ ચારીની તાકમાં ઝીણી નજરે તપાસ तो-ri ४ वहत्त तो त्या मा०यो. (उपगच्छित्ता देवदिन्नं दारंग समालंकारविभ्रसियं पासइ) त्या भावतांनी साथे ४ तेरे मा हेवरत्तने समराथी मत थयेटो नेयो. (पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने पंथयं दासचेडं पम For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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