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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०० জানাঘমকথা परामृश्य नागप्रतिमाश्च यावद् वैश्रमणप्रतिमाश्च लोभहस्तकेन प्रमाजयति रजोऽपनयति, प्रमाय॑ उदकधारया 'अभुक्खेइ' अभ्युक्षति अभिपिश्चति, अभ्युक्ष्य 'पम्हलसुकुमालाए' पक्ष्मलमुकुमारया पक्ष्मवती सुकुमारा तया 'गंधकासाइयाए' गन्धकाषायिकया गन्धप्रधानकषायरागेण रक्ता शाटिका%3D लघुवस्र तया 'गायाई' गात्राणि 'लूहेइ' रुक्षयति प्रोन्छति, रूक्षयित्वा 'महरिहं महा-बहुमूल्यं 'वत्थारुहण वस्त्रारोहणं च वस्त्रसमर्पणम्, एवं 'मल्लारुहणं' माल्यारोहणं च-पुष्पसमर्पण, गंन्धारुहणं' गंधारोहणंच-चन्दनादिगन्धसमर्पणं, 'चुन्नारुहणं' चूर्गारोहण च-अगरतगरादिगन्धद्रव्यचूर्णसमर्पणं, 'वन्नारुहग' वर्गारोहणंच-विलेपनद्रव्यसमर्पणं च करोति यावद् ज्जई) झुक कर वहां रखी हुई उसने मयूर पिच्छ की प्रमार्जनी को उठायाउठा कह नागप्रतिमाओं का यावत् वैश्रमण प्रतिमाओं का उस प्रमार्जनी से प्रमान किया। (पमजित्ता उदगधाराए अभुक्खेइ) प्रमाजेन कर फिर उसने उनके ऊपर पानी की धारा छोडी- (अब्भुविखना पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइयाए) पानी की धारा से सिञ्चित कर के फिर उसने उनका पक्ष्मल, सुकुमार गध कषाय से रंगी हुई वस्त्र से (गायाइ लूहेई) उनके शरीर को पोंछा (लूहिता) पोंछ कर (महरियं वत्थारुहणं च मल्लारहणं । गंधारुहणं च चुन्नारहणं च वन्नारुहणं च करेइ) फिर उसने उन पर वस्त्र का आरोपण किया- माल्य का आरोपण किया, गंध द्रव्य का आरोपण किया चूर्ण का आरोपण किया, विलेपन द्रव्य का आरोपण किया अर्थात् जब वह उनके शरीर को पोछ चुकी तब बाद में उसने उनको वेशकीमती-बहुमूल्य वस्त्र पहिराये-उन्हें बहुमूल्य मालाएँ पहिराई, उनके समक्ष लोमहत्थएणं पमज्जइ) नभाने तो त्या भूमी भारना पीछांनी प्रभानी SIA उपासन नाग पैश्रवण वजेरेनी प्रतिमामान प्रभा नीथी प्रभान यु. (पमजित्ता उदगधाराए अब्भुक्खेइ) प्रभान या मारणे त प्रतिभागी ५२ या। 43 सिंचन यु (अब्भुक्खित्ता पम्हलसुकुमालाए गंध कासाइयाए) જળધારાથી અભિષિક્ત કરીને તેણે તે પ્રતિમાને પહ્મલ, સુકુમેળ, ગંધ, કષાયથી २०॥मेदा वरथी (गायाइ लहेइ) मना शरीरने ५७यु. (लूहित्ता) छान (महरियं वत्थारुहणं च मल्लारुहणं च गंधारुहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुहणं च करेड) त्या२ पछी तो प्रतिभास। २ वस्त्रो न्यढाव्या, भानामा परावी, गध. દ્રવ્યો ચઢાવ્યાં, ચૂર્ણ ચઢાવ્યું, સુગંધિત લેપ ચઢાવ્યો એટલે કે જ્યારે તેણે પ્રતિમાઓને વસ્ત્રથી લૂછી લીધી ત્યાર પછી તેણે તે પ્રતિમાઓને બહુ કિંમતી વસ્ત્ર પહેરાવ્યાં, બહુ મૂલ્ય માળા પહેરાવી તેમની સામે ચંદન વગેરેના સુગંધિત તેલનું સિંચન For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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