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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञाताधर्मकथास्त्रो साद्ध बहूनि वर्षाणि यावद् ददति समुल्लापकान् सुमधुरान् पुनःपुनर्मजुल. प्रभणितान् तत् खलु अहमधन्या, अपुण्या, अकृतलक्षणा, इत एकमपि न पाप्ता, तद् इच्छामि खलु देवानुप्रिय ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती विपुलमशनं ४ यावद् अनुवर्द्धयामि, (त्तियटु) इतिकृत्वा-इत्युक्त्वा उपयाचित तुम्भेहिं सद्धि बहूर्हि वासा जाव देंति समुल्लावए सुमहुरे) हे देवानु मिय ! आपके साथ बहुत वर्षों से मैं मनुष्य भवसंबन्धी काम भाग भोग रही हूँ परन्तु अभी तक मेरे यहां न कोई लडका हुआ है और न कोई लडकी वे माताएँ धन्य हैं जो संतान से युक्त हैं एवं उनकी तोतली मधर बोली से जो अपने को प्रसन्न रखती हैं--इत्यादि कह कर फिर उसने कहा (अहं अहन्नाअपुण्णा अलवखणा एत्तो एगमवि न पत्ता) मैं अधन्या हू अपण्या हूं पूर्व में मैंने कोई भी ऐसा पुण्य नहीं किया है, जिससे मेरे यहां तो लडका लडकी मेंसे कोईभी नही है-- (तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अभणुन्नाय समाणा विपुलं असणं ४ जाव अणुवड़ेमि तिकट्ठ उवयाइयं करेचए) इसलिए हे देवानुप्रिय ! मैं आपसे आज्ञापित होकर यह चाहती हूं। की चारों प्रकार का आहार विपुल मात्रा में तैयार कराकर तथा गंध पुष्पादिलेकर अनेक मात्रादिक महिलाओं के साथ यहां के जितने भी इन्द्रादिकों के घर हैं उन सब की पुष्पा कर उन के चरणों में पडकर संतान होने की मनौती (मानता) मना*-। इस इच्छा के पूर्ण होने पर फिर मै तुम्भेहिं सद्धिं बहूई वासाइं जाव देंति समुल्लावए सुमहुरे) દે દેવાનુપ્રિય! તમારી સાથે બહુ લાંબા વખતથી હું મનુષ્યભવના કામભેગે ભેગવી રહી છું. પણ હજી મારે પુત્ર કે પુત્રી માંથી કંઈ થયું નથી. આ સંસારમાં સંતાનવાળી માતાઓ જ ભાગ્યશાળી ગણાય છે. કે જેમનાં નાનાં નાનાં બાળકો तोती मधुर l द्वारा तेभने भुश राणे छ. (अहं अहन्ना अपुण्णा अलक्खणा एत्तो एगमवि न पत्ता) हुँ तो ममी छु, पापिणी छु, पूलमा में संतान थाय भावु पुष्य आय 3थु नथी. (तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा विपुलं असणं जाव अणुबड़ेमि त्ति कटु उवयाइयं करेत्तए) ईतभारी माज्ञाथी पु४॥ प्रभाभा यारे तन साहार બનાવડાવીને તેમજ ગંધ પ વગેરે લઈને અનેક મહિલાઓની સાથે અહિંયાં જેટલાં ઈન્દ્ર વગેરે દેના ઘરે છે તે બધાંની પુષ્પ વગેરેથી પૂજા કરી તેમના ચરણોમાં પડીને સંતાનવતી થવાની માનતા રાખું. જ્યારે મારી આ મનોકામના For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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