SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 592
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाताधर्म कथा मन्त्र भए' प्रतिभयः भयोत्पादकः। 'निसंसिए' नृशंसकः। 'निरणुकंपे' निरनु कम्प: दयागुणवर्जितः। 'अहिआएगंतदिहिए' अहिरिवैकान्तदृष्टिकः, भुजङ्ग इव क्रूरकर्मकरणे एकाग्रतालक्षणः एकान्ता-एक निश्चया दृष्टिःविचारसरणियस्य स तथा। खुरेव एगंतधारए'क्षुर इस एकान्तधारकः, क्षुरो नावितशस्त्रविशेषः 'उम्तरा' इति भाषायाम्, तद्वत् ‘एगंत' एकान्तेन-तीव्रत्तात्सर्व प्रकारेण परवरूपया रणे धारा' धारा-परोपतापनरूपा परिणामधारा यस्य सः, सर्वस्यापहारीत्यर्थः. 'गिद्रे व आमिसतल्लिच्छे' गृद्ध इव-आमिष तल्लिप्मः गृद्ध इव-गृहपक्षिवत् 'आमिस, आमिषे शब्दादिविषये 'तरिच्छे' तल्लिच्छः= तत्परः तल्लिच्छे' इति तत्परार्थों देशी शब्दः । अथवा आमिषे विषयभोगादिके सा अत्युत्कटा लिप्मा यस्य सः-कामभागे तोत्राभिलापोत्यर्थः। 'अग्गमिव सयभक्खी' अग्निरि व सर्वभक्षी भक्ष्याभक्ष्यसर्वभोजी सर्वजनलुण्टको इसे देखते ही जीवों के हृदयमें भय का संचार हो जाता था। (निममइए निरनुकपे अहिब्धएगंतदिट्ठोए, खुरेव एगंतधारए, गिद्धव श्रामिसतल्लिच्छे) यह स्वभावतः नृशंसक (घातक) था निरनुकंपे-दयागुण वर्जित था। सर्प की तरह कर कर्म करने में इस की विचारसरणि एक निश्चय वाली होती थी, क्षुरा-उस्तग के समान वह सर्व प्रकार से परकीय वस्तुओं के हरण करने में परोपतापनरूप परिणाम धारावाला था। गिद्धपक्षी की तरह यह शब्दादि विषयरूप आमिष में अथवा कामवासना में तत्पर रहा करता था। (अग्गिमित्र समभावी जलमित्रमागाही उपकंवग, वंचग, मागा नियडि, क्ड, कवड, साइ, संगओग, बहुले. चिरणारविणदुट्ट सोलायारचरित्ते, जूपसंगी, मज्जपसंगी. भोज, पसंगी, मंसपतंगी दारुणे हियय दारए) अग्नि के समान यह सर्व भनी था, अथवा लक्षणे से सर्व जीवों को भन लयमla is rai sai (निसंमइए निरनुकंपे अहिल एसदिदिए खुरेव एगंतधारए, गिदेव आमिसतलिच्छे) स्वभावथी । ते नृशस भने धातछतो. (निरनुकंपे) निय Cil. सापनी म १२ भभी प्रवृत्त थना२॥ તેના વિચારો દૃઢ નિશ્ચયવાળા હતા. અસ્તરાની જેમ તે બધી રીતે બીજાઓની વસ્તુઓને હરી લેવામાં પપતાપન રૂપ પરિણામ વાળો હતે. ગીધની જેમ શબ્દ વગેરે વિષય રૂપ આમિષમાં અથવા કામવાસના જેવી બાબતમાં તે હમેશાં તૈયાર २हतो तो. (अग्गिमिव समभक्खी जलमित्र सव्वग्गाही उक्कंचण, वंचग, माया नियडि, कूड, कवड, साइसंपभोग, बहुले, चिरणारविणट्ठदुद्द सीलायारचरित्ते, जूयपसंगी, मज्जपसंगी भोजपसंगी मंसपसंगी दारुणे हि यय दारए) जिना वो ते समक्षी तो अथवा ते अप. प्राणीमान ना२ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy