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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७४ ज्ञाताधर्मकथामने चेत्येषां द्वद्व मानांन्मानमाणानि प्रातपूर्णानि-संपन्नानि, अत एव 'मुजाय सुजातानि यथोचितावयवमन्निवेशयवन्ति 'सा' सर्वाणि सकलानि, 'अंग' अङ्गानि-अज्यते व्यज्यते पागो यस्तानि मस्त. कादारभ्य चरणान्तानि यस्मिस्तत्, अतएव 'सुदरंगा' मुन्दराङ्गी-सुंदरमङ्ग वपुर्यस्याः सा तथा, 'ससिसोमागारा' शशिमौम्याकाग-शशी चन्द्रस्तद्वत् सौम्णे-रमणीय ओकार:-स्वरूपं यस्याः सा कंता' कान्ता कमनीया। पिय दंसणा' प्रियदर्शना भियं दर्शकजनमनोदकं दर्शनमवलोकनं यस्याः सा, अत एस 'सुरुवा' सुरूपा सर्वातिशायिरूपलावण्यवतीत्यर्थः 'करयलपरिमिय-ति बलीय. मज्झा' करतल परिमितत्रिवलिकमध्या करतलपरिमित मुष्टिग्राह्यः, त्रिलिकश्ववलिकत्रयोपेतः रेखात्रयवान् 'मज्झा' मध्यभागो यस्याः सा. कृशोदरी तनु कटिश्चेत्यर्थः 'कुंडलिहियगंडलेहा' कुण्डलोल्लिखितगण्ड लेखा कुण्डलाभ्या. मुल्लिखिता- उघदष्टागण्डलेखा-कपोलावस्थितचन्दनादि रेखा यस्याः सा, कुण्डल शोभासम्पन्नेत्यर्थः। 'कोमुइ-रयणियरपडि पुण्णसोम्मवयणा' कौमुदी कार्तिकी बोला जिस पुरुष अथवा स्त्री का शरीर होता है वह प्रमाण प्राप्त कहलाता है। इस तरह मान उन्मान एवं प्रमाण के अनुसार इसके समस्त शारीरिक अवयव थे अतएव वे यथोचित सन्निवेश विशिष्ट थे। मस्तक से लेकर चरण पर्यन्त उग अवयव कहलाते हैं। इसी कारण इनका शरीर बहत अधिक मुन्दर था। (ससिसोमागारा कंता पियदसणा सुरूनगे करपलपरिमिय तिर्वालयमज्झा) चन्द्रमा के समान इसका आकार मौम्य था। अत: बहुत ही कमनीय थी। दर्शक जनों के मन को इनका अवलोकन आलादकारक था। यह सर्वातिशायी रूप लावण्य से युक्त थी इनका त्रिवली युक्त मध्य भाग इतना अधिक पतला था कि मुष्टि ग्राह्य हो जाता था। (कुंडलुल्लिहिय गंडलेहा कोमुइरयगियर - पडिपुण्णमोम्म वयणा सिंगारागार चारुवेसा जाव पडिरूवा बंझा अवियाउरी દરેક અવય સમાણ અને ગ્ય હતા. મસ્તકથી માંડીને પગ સુધી ઉપાંગ अवयव उपाय छ. मेक्षा भाटे । मनु शरी२ भूम सुंदर . (ससि सोमगारा कंता पियदंसणा सुरूवा करयलपरिमियतिवलियमज्जा) તેમની આકૃતિ ચન્દ્ર જેવી સૌમ્ય હતી. એથી તે ખૂબ જ કમનીય હતી. જેનારા એ માટે તેમનું દર્શન આલ્હાદ કાક હતું. તે અતિશય રૂપ અને લાવણ્ય સંપન્ન હતી. તેમની ત્રિવલી યુક્ત કમર (મધ્ય ભાગ) એટલી બધી પાતળી હતી કે તેને समावेश भूडीमा ५ ५६. As sat. (कुंडलुल्लिहियगंडलेहा कामुइर यणियरपडिपुण्ण साम्मवयणा सिंगारागारचारूवेसा नाव पडिरूवा बंझा For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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