SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 576
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधर्मकथासने 'त्ति बेमि' इति-उतरू तत्वं यथा तीर्थकरस्य भगवतो महावीरस्य समाशान्मया श्रुतं न तु स्वबुद्धया कल्पित, यतः स्वबुद्धया कथने श्रुत. ज्ञानस्य विनयो भवति, किं च छद्मस्थानां दृष्टयोऽप्यपूर्णा भवन्ति, तस्माद् यथा भगवत्प्रतिपादितमेव त्वांब्रवीमि उपदिशामीत्यर्थ इहार्थे चेयं संग्रहगाथा-- सुअणाणस्स अविणओ परिहरणिज्जो परिहरणिज्जो सुहाहिलासीहि । छउमत्थाणं दिट्ठी, पुण्णा णस्थिति मुइयं इइणा ।। इति सूत्र. ५०॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पश्चदशभाषाकलितललित कलापालापक-पविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्री शाहू छत्र पति कोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि जैनाचार्यजैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालबति-विरचितायां श्री ज्ञाताधर्मकथासूत्रस्याऽनगार धर्मामृतवर्षिणी टीकायाम् उत्क्षि. प्सनामक प्रथममध्ययन समाप्तम् ॥१॥ लिया है, और वह अब प्रमादवशवर्ती होकर उससे स्खलित हो रहा हैया हो चुका है- तो उसे पुनः सन्मार्ग में स्थापित करने के लिये गुरु महाराज का कर्तव्य है कि वे उसे उपालंभ देवें । जिस प्रकार महावीर पभुने मेघकुमार मुनिराज को दिया है (त्तिबेमि) इस प्रकार यह उक्त रूप तत्व जिस तरह तीर्थकर भगवान महावीर प्रभुके पाससे मैंने मना है, उसी तरह यह तुमसे कहा है । अपनी बुद्धिसे कल्पित कर यह नहीं कहा है । क्यों कि बुद्धिसे कल्पित कर कहनेमें श्रुत ज्ञान की आशा तना होती है दूसरी बात यह भी है कि उनास्थजीवों की दृष्टियां अपूर्ण होती हैं । अतः वे बस्तु का पूर्णरूप प्रतिपादित नहीं कर सकी हैं। इस लिये प्रभु प्रतिपादित अर्थ ही यह तुम से कहा है । इस अर्थमें થઈ રહ્યો છે, અથવા તે તે મુક્તિમાર્ગથી ભ્રષ્ટ થઈ ચૂક્યું છે એવી વ્યક્તિને ફરી સન્માર્ગમાં વાળવા માટે ગુરુમહારાજની ફરજ છે કે તેને ઉપાલંભ આપે. જે प्रमाणे प्रभुये भुनि.४ मेघमारने SIR माया छ. (निबेमि) मा रीते. રક્ત તત્ત્વ મેં જેવી રીતે તીર્થકર ભગવાન મહાવીરની પાસેથી સાંભળ્યું છે તેવી જ રીતે મેં તમને કહ્યું છે. મેં પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરીને કહ્યું નથી. કેમકે બુદ્ધિથી કલ્પિતકરીને કહેવાથી શ્રુતજ્ઞાનની આશાતના હોય છે. બીજી વાત એ છે કે છઘસ્ય ની દષ્ટિએ અપૂર્ણ હોય છે. એટલા માટે પ્રભુ પ્રતિપાદિત અર્થ જ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy