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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवषिणीटीका अ.१स ३३ मेघकुमारदीक्षोत्सवनिक एणम् गुलपनि निष्क्रमणपायोग्यान अग्रकेशान कर्तयति ।ततः खलु तस्य मेघकुमा रस्य माता 'महरिहेणं' महाण यहुमल्येन हसलवाचणेणं' हंसलक्षणेन= हंसम्य लक्षणं स्वरूपं यस्य, यद्वा-हंमानां लक्षणं चिह्न यन्त्र तेन, अत्युज्क्लेन 'पडमाडए' पटशाट केन उत्तरीयवस्त्रेण अग्रकेशान् पिडिच्छइ' प्रतीच्छति तान् कति तान् अग्रकेशान् गृह्णातीत्यर्थः। प्रतीष्य सुरभिणा गन्धोदकेन पक्षालयति. तिकेशान् गृहीत्वा तान् केशान मुगन्धिजलेन धावयतीत्यर्थः, प्रक्षाल्य मर सेन गोशीर्षचन्दनेन 'चच्चायो दलयइ' चर्चा ददाति अभिषिञ्चति, चर्चा दत्वा 'सेयाए पोतीए' श्रेयस्या शुभतरया, श्वेतया वा पोतिकया वत्र ,ण्डेन 'बंधे' बध्नाति, अद्वा 'रमणसम्मुग्गयंसि रत्नसमुगद्के रत्न जटित संपुट के 'रत्न-डयूसा' इति भाषायाम्, 'पविश्वबई' पक्षिति-निदधानि, केशों का हजामत कर दिया। (तएणं तस्स मेहास कुमारस्स माया महरिहेणं हमलकात्रणेणं पडमाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ ) कटे हुए मेघ. कुमार क उन कशों के उनकी माताने बहुमूल्यवाले तथा हसों के जैसे उजाल अथवा हंस चितवाले अपने उत्तरीय वस्त्र में ले लिया। अर्थात उन अग्रकेशों को उसने अपने उत्तरीय वस्त्र के अंचल में रख लिया। (पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदएणं परवालेड) रखलेने के बाद फिर उसने उन्हें सुरभित गंधोदक से साफ किया। (पखालित्ता गो सीमचंदणेग चच्चाओ दलयइ, दलि। सेयाए पोत्तीए बंधेइ ) साफ करके फिर उसने गोशीर्ष चंदन से उन्हें सिंचित किया। सिंचित करने के बाद उसने उन्हें एक मफेद वस्त्र गांठ मे ६धने पाश्री अथा वा आधी नाच्या. (तपणं ना मेहम्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलवणेणं 'उसाडएणं अग्ग के से पडिच्छइ) पामेला भेधકુમારના વાળને તેમની માતાએ બહ કીંમતી હંસાના જેવા ઉજજવલ તથા હસેના ચિહ્નવાળા પોતાના ઉત્તરીય વસ્ત્રમાં લઈ લીધા. એટલે કે તે અગ્રકેશને તેમણે पाताना उत्तरीय वसना पासमा श्री सीधा. ( पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदए एं एकखालेइ) भूटी सीधा पछी तेभरे सुवासित गा६४ 43 २१२७ मनाया. (पकग्वालित्ता गोगसचंदणेणं चच्चाओ दलयइ, दलित्ता सेयाए पीसीए बंधेड) स्वच्छ मनावाने तेभाणे गोशीष न १ तेभने सिथित च्या. सियित शने तेभो भने स३६ वरखनी सीमा भावी था. (बंधित्ता रयणसमुग्गयंसि पक्खिवइ, पक्खवित्ता मंजूसाए परिवबह ) मांधाने पछी तेभने એક રત્નજડિત દાબડામાં મૂકયા અને પછી તે દાબડાને એક મંજૂષા (પેટી) માં For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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