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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका. अ १ सू. ३१ मातापितृभ्यां मेघकुमारस्य संवाद : ३७५ 'भदंते' ते = तव भद्रं - कल्यागं भूयात्, 'अजियं जिणाहि' अजितं जय, अजितं देशादिकं जय स्ववशं कुरु 'जियं पालयाहि' जितं पालय, जितं देशादिकं पालय, 'जियमज्झे व साहि' जितमध्ये वस, वशीकृतमध्ये वस, जितपक्षे निवासेन सुरक्षितो भवेत्यर्थः ' अजियं जिणाहि' अजितं जय विजयस्त्र 'सत्तुपक्ख' शत्रुपक्षम्. जितं च पालय 'मित्तपत्रखं' मित्रपत्रं, मित्रं सर्वदा हितोपदेशकं हितचिन्तकं च तस्य, पक्ष: समूह:, तमपि पालय अजितशत्रुजयेन, जित मित्ररक्षणेन च राजशासनं सुदृढं भवतीतिभावः 'जाव भरहो इव मणुयाणं' यावद् भरत इव मनुजानां = मनुष्याणां मध्ये भरतभूप इव, यावच्छब्देन देवानां इन्द्रव, असुराणां चमर इत्र, नागानां धरणेन्द्र इव ताराणां चन्द्र सदा कल्याण हो, आप ( अनियं जिणाहि ) अजित को सदा जीतने वाले रहें जिन देशादिकों को अभीतक आपने नहीं जीता हो उन्हें जीत कर अपने आधीन करें ( जियं पालयाहि ) तथा जिन्हें जीतकर आपने अपने वश मे कर लिया हो उनकी आप सदा रक्षा करते रहें (जियम ज्झे साहि ) आप सदा जीतने वालों के ही मध्य में बसे रहें कारण जीतने वालों के पक्ष में रहनेवाला व्यक्ति सदा सुरक्षित बना रहता है | ( अजियं जिणाहि ) आप अजितों को जीते-- उनपर विजय पावें( सत्तपत्रखं जियं च पाले हि ) शत्रु पक्ष की तथा जीत व्यक्ति की आप सदा रक्षा करते रहें। (मित पक्खं ) इसी तरह आप अपने मित्र पक्ष की भी सदा संभाल करते रहें । अजीत शत्रु के जीतने से और अपने मित्र पक्ष की रक्षा करने से राजा का राजशासन सदा सुदृढ बना रहता है | ( जाव भरहो इत्र मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अण्णे था. तभे ( अजियं जिणाहि ) उमेशां व्यक्ति उपर भय भेजवनार था. જે દેશાને તમે હજી સુધી જીત્યા નથી તેમને જીતીને પોતાને સ્વાધીન મનાવે. ( जियं पालयाहि ) भने ? देशाने तमे त्या छे, तेभनी हमेशां रक्षा रा रहे. (जियमज्झे साहि ) तभे सहा विनयी पुरुषोनी वस्यें बसो, प्रेम! विभयी भाणुसोना पक्षमा रहेनार व्यक्ति हमेशां सुरक्षित मनी रहे है. ( अजियं जिणाहि ) तमे अनिताने तो, तेभना उपर विनय भेजवा. ( सचुपक्खं जियं च पाले हि ) शत्रु पक्षनी तेमन विनित व्यक्तिनी तमे सहा रक्षा रता रहा. ( मित्त पक्ख) मा रीते तमे पोताना भित्र पक्षनी पण संभाण राता रहे. અજિત શત્રુને જીતવાથી તેમજ પોતાના મિત્ર પક્ષની રક્ષા કરવાથી રાળનું રાજ્યशासन हमेशां सुस्थिर रहे छे, (जा भरहो इव मणुया णं रायगिहस्स For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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