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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ ज्ञाताधर्म हमत्रे विविधा - अनेक प्रकाराः रोगातङ्काः - तत्र रोगाः श्वास १ कास२ ज्वर३ ६६६४ कुक्षिशूल५ भगंद६ रोर्शोऽऽजीर्ण८ दृष्टिशूल ९ मस्तकशूला १० रोचका ११ क्षिवेदना १२ कर्णवेना १३ कण्डूवेदनोदर १४ पीडा १५ कुष्ठादयः १६ प्रतिक्षणघोरवेदनाजनकाः, आतंकाः = सद्योघातिनः हृदयशूलादयः तान् सोढुं न समर्थोऽसीत्यर्थः । ' उच्चावए' उच्चावचान् = नानाविधान् 'गामकंटए' ग्रामकं• टकान् इन्द्रियसमूहप्रतिक्लान् ' बाबीसं पडिसहोवसग्गे' द्वाविंशतिपरीप होपसगन, तत्र परि=समंतात् मुमुक्षुभिः सह्यन्ते कर्मनिर्जरार्थं इति परीषहा:= क्षुधादयः उपसर्गाः= देवादि कृता उपद्रवास्तान् 'उद्दिष्णे' उदीर्णान उदया बलिका प्रविष्टान् 'सम्मं' सम्यक् मकारेण 'अहियासित्तए' अध्यासितुं= सोढुं नालं=न समर्थः, तस्माद् 'भुंजाहि' भुंक्ष्व तावत् हे जात ! मानुष्यकान् कामभोगान् ततः पश्चात् = भुक्तभोगीसन् श्रमणस्य३ यावत् प्रवजिष्यसि । ततः नहीं हो। इसी तरह इन्द्रियों के प्रतिकूल अनेक प्रकार के २२ ( बावीस ) परिषह और उपसर्ग जन्य दुःखों को उदय में आने पर तुम सहन करने में समर्थ नहीं हो । प्रतिक्षण धार वेदनों को उत्पन्न करनेवाले श्वास, कास, ज्वरदाह, कुक्षि, शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशल, मस्तक शूल, अरुचि' अक्षिवेदना, कर्णवेदना, कण्डूवेदना, उदरपीडा और कुष्ठ यदि ये सब रोग हैं, तथा जिनके होने पर जीवन का हो शीघ्र अंत हो जाता है ऐसे हृदयशूल आदि आतंक हैं। कर्मों की निर्जरा करने के लिये मोक्षाभिलाषी जन जो क्षुधा आदि के कष्टों को सहन करते हैं वे परीषद हैं और देवादिक द्वारा जो उन्हें कष्ट दिये जाते हैं उपसर्ग हैं | (भुंजहि ताव जाया माणुस्सर कामभोगे ) इस लिये हे पुत्र ! हमारी बात मानों पहिले तो तुम मन माने मनुष्यभव संबन्धी જાતના ખાવીસ (૨૨) પરિષહે અને ઉપસજન્ય દુઃખા ઉદય થશે ત્યારે તમે તેમને સહી શકશે નહીં દરેક ક્ષણે ભયંકર વેદના જનક શ્વાસ, કાસ, જવર દાહ, मुक्षिशूल, लग'हर, अर्श, अपयो, दृष्टिशूल, भस्तशूल, मरुथि, यक्षिवेदना, अणु, વેદના, કહૂંવેદન', ઉત્તરપીડા અને કુ વગેરે આ બધા રાગે! તેમજ જેમના ઉત્પન્ન થવાથી જીવન એકદમ મૃત્યુ વશ થઇ જા છે એવા હૃદયલ વગેરે આત કકારી ૠગે છે. કર્મોની નિરા કરવા માટે મેાક્ષાલિલાંખી લેાકા ભૂખ વગેરેના કષ્ટો સહન કરે છે, તે પરીષહેા છે, અને દેવતા વગેરેથી જે તેમને કષ્ટ આપવામાં આવે છે, ते उपसंग छ (भुंजहि ताव जायामाणुस्सर कामभोगे ) भेटला भाटे હે પુત્ર! અમારી વાત માને. તમે પહેલાં તો ઈચ્છા મુજબ મનુષ્યભવના સમસ્ત For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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