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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ.१स.२ मातापितृभ्यां मेघकुमारम्य संवादः ३७ - - टीका-'तुमंसिणं' इत्यादि जाया: है नात पुत्र. -1 खलु अस्माकमेकः पुत्रः, यथा-इष्टः इच्छापूरकः, कान्तः हृदया , मियः-विनयशीलत्वात्, मनोज्ञा=मनः प्रमादकः, मनोऽम-मनस्यस्थितः सकलकुटुम्बहितकरत्वात, 'धिजे' धैर्यः-धैर्यगुणवान्, अशआदित्वादचू, घोरे ऽपि कष्टे समुपस्थितेसत्यविकृतचित्तः, यद्वा कठिन कार्यसंपादनेऽपि उद्वेगबक्षित इत्यर्थः, 'वेसासिए' वैश्वामिकः कपटहितत्वात, 'सम्मए' संमतःअनु कलकार्यकरणात्, 'बहुमए' बहुनतः सर्वथा मनोनुकूलवर्तित्वात् 'अणुमर' अनुमतः-शत्रोरपि हितकरत्वात्, ‘भंडकरंडगसमाणे' भाण्डकरण्डकस. 'तुममि गं जाया' इत्यादि। टीकार्थ-(जाया) हे पुत्र (तुमंसि णं अम्हे एगे पुत्ते) तुम हमारे एक ही पुत्र हो तुमही (इटे) हमारी इच्छाओं की पूर्ति करने वाले हो (कंते) तुमही हमारे हृदय को आनन्दित बनाने वाले हो (पिए) हमे संसारिक समस्त विभूतियों की अपेक्षा अधिक प्यारे हो (मणुण्णे) तुमहो हमारे चित्त को प्रसन्न करने वाले हो, (मणामे) सकल कुटुबजनों का हित तुम से होने वाला है इस लिये तुम ही हमारे मन में अवस्थित हो-अपना घर कि ये हो-(धिज्जे) घोर कष्ट आदि के उपस्थित होने पर भी तुम उससे विकृत चित्त नहीं बन सकते हो ऐसी हमें तुम से पूर्ण आशा लगी हुई है अतः तुम धैर्य गुणशाली हो (वेसासिए) तुम पर कपट चिन रहित होने के कारण हमारा पूर्ण विश्वास है (सम्मए) अनुकूल कार्यकर्ता होने से तुम ही हमें संमत हो, (बहमए) सर्वथा तुम हमारे मन के माफिक चल रहे हो इमलिये हमें बहुतर कर संमत हो (अणुमए) 'तुमंसि जाया' इत्यादि थ-(जाया) पुत्र ! (तुमंसीणं अम्हे एगे पुत्ते) तभै सभा- सेना ये पुत्र छ।, तमे ४ (इहे) सभा २छायानी पूति ४२ना२ छ।, (कंते) तभी सभा२इयने भान पाउना२ छ.. (पिट) तमे ८ सभा। भाट संसारना समय वैभव ४२di वधु प्रिय छ।. ( मणुण्णे) तभै ४ अभा॥ थित्तने प्रसन्न ४२नार छ।, (मणामे ) मामा मुटुमनु म तमाराथी थशे गेटवे तमे १ सभा। मनमा अवस्थित छ।, (धिज्जे) सय ४२ टन मते ५६५ तभे સહેજે વિચલિત નહિ થાઓ એવી તમારી પાસેથી અમને આશા છે, તમે ધર્ય शु ॥ छो. (वेसासिए) तमे निष्पट छ। सटो। तमा। ५२ सपा विश्वास छ. (सम्मए) अनुभूण १२मा२ ४२ना२ डापाथः तमे मभने संमत साग छी. (बहुमए) तमे हम सभा। मत मा३४ वी २॥ 81, तेथी सभने त प समत छ।, (अणुमए) तभे तमा। शत्रुनु ५५ हित ४। छ, ४३ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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