SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे गनप्रोका लावण्यरहिता, निच्छाया=पकाशहीना अनएव गतश्रीका- शोभावर्जिता, 'पसिटिलभूसणपड़ंत खुम्मिय संचुन्निय धवलवलयपन्भट्ट उत्तरिजा' प्रशिथिलभूषणा = शोकेन कृशाङ्गत्वाद् आदौ प्रशिथिलानि भूषणानि यस्याः स ततः शोकाधिक्येनातिकृशत्वात कतिपयाः पतन्तः, कतिपयाः खुम्मिया' चक्रीभूताः, 'खुम्मिय' इति देशीयः शब्दः, तथा कतिपयाः संचूर्णिताः = त्रुटिताः स्फुटिता इत्यर्थः धवलया यस्याः सा प्रभ्रष्टं शरीरात् पृथग्भूतम् उत्तरीय शरीराच्छादनवस्त्रं यस्याः सा ततः कर्मधारयः । 'मालविकिन्न के सहत्था ' सुकुमार - विकीर्णकेशहस्ता सुकुमारः = सुकोमलः, विकीर्णः - प्रसृतः केशहस्त:= केशपाशो यस्याः सा, केशशब्दादग्रे वर्तमानो हस्तशब्दः समूहार्थकः । 'मुच्छावसणटुचेयगरुई' मूर्छावशनष्टचेतोगुर्वी = मूर्छावशेन नष्टे चेतसि सति गुर्वीधवलवलय पब्भट्टउत्तरिजा) शरीर का लावण्य न मालूम कहां चला गया । प्रकाश से विहीन हुई वह बिलकुल शोभा से विहीन बन गई । शोक से वह इतनी अधिक कृशाङ्ग हो गई कि जो आभूषण उसने अपने शरीर पर धारण कर रक्खे थे वे कितनेक तो शिथिल हो गये - तथा शोककी और अधिक वृद्धि होने से शरीर पर से कितनेक गिरने लगे, कितने वक्रीभूत हो गये, कितनेक नीचे गिर कर चूर्णित-ठ-फूटगये । उत्तरीय वस्त्र जो हमने धारण कर रक्खा था वह भी शरीर पर से खिसकने लग गया। उसे भी संभालने की हिम्मत इसमें नहीं रही । (मल विकिन्न के महत्ा) माथे का सुकुनार केश समूह इतस्ततः विश्वर गया (मुच्छावस चेयगरुई) मूर्च्छा भी आने लगी इस से चिनमें जो समय - समय पर रुचि जगती थी वह भी नष्ट हो चली- अथवा मूच्र्छा के वश जब यह चेतना रहित सी बन जाती थी तब इसका शरीर बलयभट्ट उत्तरिज्जा) शरीरनु सावएय आशु लागे ज्यां महश्य थागयुं ? નિસ્તેજ થઇને છે એકદમ શે।ભારહિત થઈ ગઈ. શાકથી તે એટલી બધી દુળ થઇ ગઇ કે જે ઘરેણાં તેણે પહેર્યા હતાં તેમાંથી કેટલાંક તેા ઢીલાં થઇ ગયાં, અને શાકની વૃદ્ધિ થતાં શરીર ઉપરથી કેટલાંક નીચે ખસી પડયાં, કેટલાંક વક્ર થઈ ગયાં, કેટલાંક નીચે પડીને ટુકડે ટુકડાં થઇ ગયાં, તેનુ ઉત્તરીય વસ્ત્ર—જે તેણે શરીર ઉપર ધારણ કર્યું હતું તે પણ શરીર ઉપરથી ખસવા માંડયું. તેને સાચવपानी पशु ताअत तेमां रही नहि. ( मूमालवि किन्न के सहत्था ) भाथाना सुभમળ વાળ આમતેમ અસ્તવ્યસ્ત થઈ ગયા. ( मुच्छावसाचेयगरुई ) ते મૂચ્છિત થવા લાગી, તેથી વખતા વખત જે તેને ઈષ્ટ વસ્તુ મેળવવાની ઇચ્છા થતી તે પણ સાવ નાશ પામી. અથવા મૂર્છાવશ થઇને તે ચેતના વિહીન થઈ જતી For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy