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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षि टीका. अ १सू २३ मेधकुमारपालनादिनिरूपणम् ३०१ दानार्थम् एवं 'पकामं भात्तुं' प्रझाम भक्तुं स भागाथै पारेभाउं' परिजायतुं दायादादोनां भ्रात्रादीनां विभागश. पदानार्थ तत्परिमाणं द्रव्यं दत्तवन्तौ इति सम्बन्धः। एवं राजकन्यकाः परिणीय ताभिः सह मेघकुमार: स्वकं भान-मागतः। __ ततःखलु म मेयकुमारः 'एगमेगाएभारियार' एकै स्यै भायोय 'एग. मेगं' एकाम् एकां 'हिरणकोडिं' हिरण्यकोटीं' रौप्यकोटी 'दलयइ' ददाति.। एवम् - एकैकां सुवर्ण कोटिं यावत् एकैकां प्रेषणकारिणीं ददाति,। अन्यच्च विपुलं धनकनकादिकं परिभाजयितुम् 'यावत्-आसप्तमात् कुलवंश्यात् प्रकाम' दानार्थ भागार्थ परिभजनार्थ व ददाति । ततखलु सः मेघकुमारः 'उपि पासायवरगए' उपरिप्रासादवरगतः उत्तमराजभवनोपरिभूमौ स्थितः, 'फुटमाणेहिं पक्तियों के पोषण आदि में, इच्छानुसार खर्च कर सकें। अपने भोग में उसे अच्छी तरह व्यय कर सकें और हिस्सेदार अपने भाईयों में उसका उचित रीति से उसे विभक्त कर सके। इस तरह दहेज प्राप्त कर वह मेषकुमार उन नवीन परिणीत वधुओं के साथ अपने भवन पर आ गया।-(तएणं से मेहेकुमारे एगमेगाए भरियाए एगमेगं हिरण्ण कोर्डि दलयइ जाव एगमेगं ऐसणाकारिं दलयइ अण्णं च विपुलं धणकणग जान परिभाएउं दत्रयइ) बाद मे उस मेघकुमारने एक एक अपनी पत्नी के लिये उस समस्त सामग्रीमे से एकर हिरण्य की कोटि दी। इसी तरह भेजने वालो पर्यन्त उपने उन उनवस्तुओं का उनके लिये विभाग कर वितरण कर दिया। धन, कनक आदि सबका भी विभाग कर वितरण कर दिया। कि जिससे वे अच्छी तरह उसे अपनी इच्छानुसार दानादि में लगाती रहें। (तएणं से मेहे कुमारे उपिपासायवरगए फुटमाणेहिं मुईगપિતાના માટે સારી રીતે ખર્ચ કરી શકે અને ભાગીદાર પિતાના ભાઈઓને પણ ગ્ય રીતે વહેંચી શકે આ રીતે પ્રતિદાન મેળવીને મેઘકુમાર નવી વધૂઓની સાથે पोताना भवनमा माव्यो. (तएणं से मेहेकुमारे एगमेगाए भारियाए एग मेगं हिरण कोडिं दलयइ जाब एगमेगं पेसणकारि दलयइ अण्णं च विपुल धणकणग जाव परिभाएउं दलयइ) त्या२मा भेभारे पातानी ४२४ पली भाटे બધી સામગ્રીમાંથી એક કરોડ હિરણ્યની મુદ્રાઓ આપી. આ પ્રમાણે દહેજમાં પ્રાપ્ત થયેલી બધી વસ્તુઓને સમભાગ કરીને કનક ધન વગેરે બધી વસ્તુઓને વહેંચી દીધી. જેથી તેઓ પણ પિતાની ઈચ્છા મુજબ દાન વગેરેમાં આપી શકે. (तएणं से मेहेकुमारे उप्पि पासायवरगए फुटमाणेहि मुइंगमस्थएहि वरत For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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