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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ ज्ञाताधर्म कथा सत्र दुःखविनयशाल या द्रुतया 'छयाए' छे या आगमने विघ्नयाधाविजितस्वेन शिघुणया. 'दिवाए' दिव्या= उत्तमत्वेन मनोहरया, 'देवगइए' देवगत्या देवसम्बन्धिश्रेष्ठ गल्या, 'जेणामेवजंबूट्टीवे२' इत्यादि, यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपः= मध्यजम्बूद्वीप इत्यर्थः' भारतवर्ष यत्रैव दक्षिणार्द्धभरतक्षेत्रं राजगृहं नगरं पौषधशालायामभयकुमारः अष्टमभक्तं कुर्वाणश्च तिष्ठिति तत्रोपागच्छति, उपागत्यान्तरिक्षप्रतिपन्नः दशार्धवर्णानि सकिङ्किणिकानि प्रवरवस्त्राणि परितः सालंकारसम्पन्नः, अभयकुमारम् एवमवदत्-हे देवानुप्रिय ! अहं खलु सौध. मेकलयवासी तव पूर्वसंगतिको देयो महद्धिकोऽस्मि, 'जष्णं' यत्-यस्मात खलु हुओ करती है उसी तरह की उसकी बह गति भी बलको लिये हुई थी इसलिये उसे सिंह जैसी यहां प्रकट किया है। शोघ्र मुझे मित्र का मिलाप हो जावे ऐसी भावना उम देव के भीतर काम कर रही थी अतः उसकी गति में उद्धतता आगई थी। मैं अपने मित्र के दुःखपर विजय पालूंगा ऐसा आत्मविश्वास उस देव के हृदय में जम चुका था-अतः उसकी गति में जयशीलता आगई थी। उस देव के आगमन में किसी भी प्रकार की विघ्नबाधा नहीं थी इसलिये उसकी गति छेका रूप थी। दिन इसलिये थी कि वह मन को हरण करती थी। (उवागच्छत्ता) अभयकुमार के पास आकर और (अंतलिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाइंस खिखिणियाई ५वरवत्थाई परिहिए अभयकुमारं एवं वयासी) आकाश में ही स्थित रह कर तथा वे हो पंचवणे के क्षुद्रघंटिकाओं से युक्त श्रेष्ठवस्त्र पहिरे हुए उस देवने उस अभयकुमार से ऐसा कहा-(अहन्नं देवानुप्पिया पुचगंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए) हे अभय कुमार? मैं तुम्हारा पूर्वभव का જેવી બલવાન હતી એટલે જ તેને સિંહ જેવી બતાવવામાં આવી છે. મિત્રને મિલાપ સત્વરે થાય એવા વિચારે તેના મનમાં ઉત્પન્ન થઈ રહ્યા હતા, એથી તેની ગતિમાં “ઉદ્દતતા” આવી ગઈ હતી. મારા મિત્રનું કાર્ય હું સિદ્ધ કરીશ એ આત્મવિશ્વાસ તેના મનમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયા હતા, તેથી તેની ગતિમાં જ્યશીલતા આવી ગઈ હતી. દેવને પ્રકટ થવામાં કે આવવામાં કઈપણ જાતના અન્તરાય કે વિદને વચ્ચે નડતાં ન હતાં તેથી તેની ગતિ છેકા (ચાતુર્ય) ३५ छती. ते भनने मानारी ती पेटवा माटे गति हिव्य ता. (उषाक च्छिना) लयभा२नी पासे ४४ने (अंतलिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाई सविं विणियाई पवरवत्थाई परिहिए अभयकुमारं एवं क्यासी) Air २.६२२९ता અને પાંચ રંગના ક્ષુદ્ર ઘંટિકાઓવાળા ઉત્તમ વસ્ત્રો ધારણ કરેલા દેવે અભયકુમારને ४घु 3-(अहन्नं देवानुप्पिया पुञ्चसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे महटिए) - અભયકુમાર હું તારા પૂર્વભવને મિત્ર સૌધર્મ કલ્પવાસી મહદ્ધિક દેવ છું. For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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