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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. सू. ७ स्वप्नफलनिरूपणम् ९७ परमसौमनस्थिता=अत्युत्कृष्टशुभमनोभावयुक्ता, हरिसबसत्रिम प्यमाणहियया' हर्षव शत्रिम हृदया=आनन्दोल्लासप्रफुल्लित हृदया 'धाराहयकलंवपुष्फगं पिव सम्ससियरोमकूप' - धाराहतकदम्बपुष्पमित्र समुच्च सितरोमकूपा - धारहतं = जलधर-जलधाराताडितं कदम्बपुष्पमिव समुच्छेसिताःस्थूलतां गता रोमकाः-रोम निर्गम स्थानानि यस्याः सा तथोक्ता, यथा जलधर-धाराभिराहतं कदम्बकुसुमं विकसितकेसरव्याप्तं भवति तथा स्वप्नदर्शनेन साऽपि समुद्गतरोमकूपा जाता, एवम्भूता सा तं स्वनम् 'ओगिव्हर' अवगृह्णाति - अवग्रहादिना मनोविषयीकरोति, अवगृह्य = संस्मृत्य 'सयणिज्जाओ उट्ठेई' शयनीयत उत्तिष्ठति, उत्थाय 'पायपीढाओ पचोरुहड़' पादपीठात्प्रत्यवरोहति =चरण निक्षेपपट्टादधस्तादवतरति प्रत्यरुह्य 'रियमचचलम संभताए' अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तया अत्वरितं = शीघ्रता रहितम्, अचपलं= देहचाञ्चल्यवर्जितं यथास्यात्तथा श्रतएव असम्भ्रान्तया= अत्रस्तया स्खलनाहीनया 'अक्लिंबियाए' अविलम्बितया=अनवरुद्धया 'रायहससरिउत्कृष्ट शुभ मनोभाव से युक्त हो (हरिसवसविसप्पमाणहियया) अत्यन्त वर्ष के उल्लास से प्रफुल्लित हृदय वाली हो कर (धाराहय कलंबपुष्फगं पिव समूस सियरोमकूवा) मेघ की धारों से आहत कदम्ब पुष्प की तरह अतिस्थूल रोमकूप वाली बन चुकी तब उसने (तं सुमिगं ओगह ) उस स्वप्न का अवग्रह रूप से विचार किया। फिर ईहा अवाय आदि रूप से उसका विशेषर और भी चिन्तवन किया । (ओगिहित्ता) चिन्तवन कर पश्चात् वह - ( पायपीदाओ सर्याणिजाओ) शय्या से (उट्ठेई) उठ गई। · (उत्ता) उठकर फिरवह (पायपीढाओ पच्चोरुहइ) पादपीठ से नीचे उतरी (पच्चरुहिता) नीचे उत्तर कर याद में वह (अतुरियमचवल मसंभतार - अक्लिंबियाए रायहंमसरिसीए गईए) शीघ्रता एवं देह की चपलता से रहित होकर विना किसी हिचकिचाट के अनवरुद्ध थाने भूपेंद्यासधी अडुक्षित हृहयवाणी थर्ड ने (घाराहयकलंय पुप्फापिवसम्ससियरोमकूपा) भेधनी धाराभोवडे आत उह पुण्यनी प्रेम यूमन स्थूल" शेभयवाणी (शभांति ) थई गई. त्यारे तेथे ( तं सुमिणं अंगिण्डइ) ते स्वप्न ઉપર અવગ્રહરૂપથી વિચાર કર્યાં. પછી છઠ્ઠા અવાય વગેરે રૂપથી સવિશેષ તેનું ચિંતન यु. ( ओगि हित्ता) चिंतन पछी ते (सयणिज्जाओ) शय्या उपरथी ( उट्ठेई) उठीने मेसी गई. (उट्ठित्ता) मेसीने ते ( पायपीढ़ाओ पच्चारूहइ) पापी उपरथी नीचे उतरी, (पच्चरुहित्ता) नीचे उतरीने ते (अतुरियमचवलमसंभताएअविलंबियाए रायहंससरिसीए गइए) हेडनी अंगणता, रहित थने धीमे धीमे साय वगर ते अनवरुद्ध राजहंसीना देवी यादथी ( जेणामेव सेणिए राया ૧૩ , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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