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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर भो अपेक्षामात्र से ऐसा ज्ञाम होता हो तो बीच की दीर्घ में ही स्वापेक्षया ह्रस्वत्व का ज्ञान क्यों नहीं होता है तब पही कहना पड़ता है कि इसमें थापेक्षया ह्रस्वत्व है ही नहीं, तो उसका ज्ञान कहां से हो ?' अर्थात् स्वत्व सत् है और वह स्वापेक्षया से नहीं किन्तु अन्य दीर्घ वस्तु की अपेक्षा से यह सिद्ध होगा। ___ (६) कहते हो 'ह्रस्व-दीर्घ का सापेक्ष ज्ञान होता है; तो उन दोनों का ज्ञान क्या एक साथ होता है ? अथवा क्रमिक ? एक साथ कहते हो तो परस्पर अपेक्षा कहाँ रही ? अपेक्षा का मतलब तो यह है कि जिसकी अपेक्षा हो वह पहले पाना चाहिये। यहां तो एक साथ ज्ञान होने की बात है तो अपेक्षा कहाँ रही ? यहि कहते हो कि क्रमशः होता है, तो दो में प्रथम जो ह्रस्व का अथवा दीर्घ का ज्ञान होगा वह तो अन्य दीर्घ की अथवा ह्रस्व की अपेक्षा बिना ही हुआ गिना जायगा। इससे तो यह वस्तु अपेक्षा से नहीं किन्तु स्वतः सिद्ध रही ! अनु. भव भी ऐसा है कि चक्षु-संयोगादि सामग्री रहने पर घड़े आदि वस्तु का वैयक्तिक रूप से स्वतः ज्ञान होता है। यह ज्ञान पर की अपेक्षा बिना ही होने का अनुभव सिद्ध है । बालक को जन्म लेते ही प्रथम ज्ञान ऐसा बिना अपेक्षा के ही होगा । अतः सिद्धि अर्थात् ज्ञान, यह सापेक्ष ही होने का नियम गलत है । अन्यथा परस्पर ह्रस्व-दीर्घ न हो, परन्तु तुल्य ही हो उन बिचारे का तो ज्ञान ही कैसे बने ? दो अांखों की भांति इन दो में परस्पर क्या अपेक्षा ? (७) अतः कहो कि वस्तु में सापेक्ष निरपेक्ष दो प्रकार के स्वरूप हैं। इन में सत्ता-सत्व, रूप, रस आदि निरपेक्ष स्वरूप हैं । इस प्रकार वस्तु स्वत: सिद्ध, स्वतन्त्र ज्ञेय है, इसका परनिरपेक्ष स्वतः ज्ञान होता है। फिर जिज्ञासा वश प्रतिपक्ष के स्मरण से ह्रस्व दीर्घादि सापेक्ष रूप में जाने जाते हैं। इस प्रकार जहां वैसे निरपेक्ष ज्ञान से और निरपेक्ष व्यवहार से सत्तादि स्वरूप स्वतः सिद्ध हों वहां सर्व शून्य कहाँ रहा ? (८) अगर सत्ता स्वतः सिद्ध न हो तो ह्रस्व वस्तु की सत्ता भी परसापेक्ष ही होगी। इससे तो जब ज्ञान में पर दीर्घ की अपेक्षा न रही जैसे कि 'यह अंगुली है' इतना ही ज्ञान किया तब ह्रस्वसत्ता नष्ट ! यह नष्ट, तो दीर्घसत्ता For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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