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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी महान् की शरण में जीवन अर्पित कर दें तो वे भी उसी का अनुसरण करते थे | मानव जीवन का पराग क्या ? उसका पशुजीवन से ऊंचा प्राचरण कौन सा ? संशय का काररगः वायुभूति भगवान के पास श्राये । प्रभु ने उसी प्रकार नाम - गोत्र के संबोधन से बुलाया और संशय कहा, 'हे गौतम वायुभूति ! तुम्हारे मन में संशय है कि 'यह शरीर ही जीव है ? अथवा जीव जैसी कोई भिन्न वस्तु है ?" 'विज्ञानघन एव' इस वेद पंक्ति से तुम्हें लगा कि चैतन्य तो पृथ्वी प्रादि पाँच भूत में से उठता है और इनके नाश से पुनः नष्ट हो जाता है । इससे सूचित होता है कि 'चैतन्य' वस्तु तो है परन्तु इन पाँच भूत का ही धर्म, यानी देह ही चेतन आत्मा है । दूसरी ओर " न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति; अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः " ऐसी वेद पंक्ति मिली ! इससे तो यह जानने को मिला कि शरीरधारी को प्रियाप्रिय यानी सुख-दुःख का अन्त नहीं, और शरीर रहित बने हुनों को सुख दुःख स्पर्श नहीं करते' । यह तो स्पष्ट शरीरवासी किसी भिन्न श्रात्मा का विधान करती है, ऐसा लगा । श्रतः श्रामने सामने विरोधी वस्तु मिलने से शंका उत्पन्न हुई ! शरीरर-भूतसमुदाय यही जीव है इसके समर्थन में बहार देखने को मिला कि दूब के फूल, गुड़, पानी श्रादि मदिरा बनाने की प्रत्येक वस्तु में मद्यशक्ति दिखाई नहीं देता और इन सबके समुदाय में दिखती है, इससे पता चलता है कि मद्यशक्ति किसी भिन्न व्यक्ति की नहीं परन्तु एक समुदाय का मात्र है, कोई भिन्नवस्तु नहीं है । इस प्रकार चेतन चैतन्य भूत - समुदाय का धर्ममात्र है, किन्तु भिन्न वस्तु नहीं । 'देह से जीव भिन्न' - इसके तर्क (१) परन्तु यहाँ समझने योग्य यह है कि जो प्रत्येक का धर्म नहीं वह For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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