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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इससे अकेले पुरुष की ही सत्ता का पता चलता है, कर्म का नहीं। इसी प्रकार 'विज्ञानधन एव....' पंक्ति से विज्ञान समूह ही, अर्थात् कर्म नहीं ऐसा लगता है। परन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि ये वेद-पंक्तियां पुरुष मात्र की स्तुति करती हैं । ऐसा करने का उद्देश्य 'मैं ब्राह्मण जाति का, मैं क्षत्रिय जाति का' ऐसा जातिमद छुड़वाने के लिए नीच जाति वाले के साथ भी अद्वैत की-एक रूपता की भावना करवाना हैं कि-'मैं और यह पुरुष प्रात्मरूप से एक हैं, फिर ऊंच-नीच किस बात की ?' शास्त्रों के वाक्यों का विवेक करना चाहिये कि यह किस प्रकार का वाक्य हैं ? व्यवहार में भी कोई जोश देने वाला वाक्य होता है, तो कोई मजाक का, तो कोई वस्तुस्थिति का सूचक होगा, भले शब्द फिर एक से हों। निराश होते हुए विद्यार्थी को कहा जाता है,–'तू तो होशियार है', अर्थात् परिश्रम कर, सफलता पाएगा । बुद्धिहीन परन्तु अधिक समझदारी के दिखाऊ को भी भाई, तू होशियार है' ऐसा कहा जाता है परन्तु मजाक में । अच्छे बुद्धिमान परिश्रमी को जब कहते हैं कि 'तू तो होशियार है' तो इसका अर्थ है तुझे परीक्षा सरल लगती है । इस प्रकार वेद के तीन प्रकार के वाक्य मिलते हैं- १. विधिवाक्य, २. अर्थवाद, और ३. अनुवाद वाक्य. । (१) विधिवाद अर्थात कुछ करने या न करने का निर्देश करने वाले वचन, जैसे कहा,-अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकामः स्वर्गेच्छु अग्निहोत्र यज्ञ करे । 'मा हिंस्यात्' हिंसा नहीं करनी। (२) अर्थवाद प्रर्थात् स्तुति या निन्दा के भाववाले वाक्य; जैसे-'एकया पूर्णयाहुत्या सर्वान् कामान् अवाप्नोति'-एक पूर्ण प्राहुति से सर्वइच्छित की प्राप्ति होती है । यह पूर्ण पाहुति की स्तुति है, परन्तु विधिवाद नहीं; क्यों कि तब तो फिर इतना ही कर के बैठ जाए अग्निहोत्रादि यज्ञ क्यों करे ? वे व्यर्थ ठहरते हैं ! फिर भी स्तुति करके यह सूचित करता है कि इतना तो अवश्य करें व यह ठीक प्रकार से करना। For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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