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विषय में भी समझे। अतः हिंसा से कर्म का जन्म होता है, ऐसा कहने में कोई प्रापत्ति नहीं है।
अब दूसरी बात लें कि 'राग-द्वेष से कर्म का जन्म होता है। इसमें इतना तो सत्य है कि पूर्व कृत कर्मों से यहां रागद्वेष होता है, परन्तु यदि इस रागद्वष को सफल नहीं बनाया जाय तो नवीन कर्म-बंधन से बच सकते हैं; जैसे किसी पर द्वष जागृत हुमा हो, परन्तु इसका फल न बैठने दे; यानी स्वयं को वश में रख कर मुह बिगाड़ना, कठोर शब्द कहना, मारने के लिए तत्पर होना आदि न करें, तो नवीन कर्मों का बंधन नहीं लगता। नीतिमान को धन पर राग होता है परन्तु कभी भी पराये पैसे चोरी करने या लूटने की बात नहीं । उल्टा अपने राग की निन्दा करता है जिससे भारी कर्म-बंधन नहीं लगता।
'समरादित्य केवली महर्षि चरित्र', 'उपमिति' आदि ग्रन्थ पढ़ कर समझ कर वैराग्य भावना का पोषण करें, तत्त्व बुद्धि जाग्रत् करें, दीर्घातिदीर्घ द्रष्टा बने, जहां तक बने रागद्वेष करे नहीं, तो कर्म परम्परा नहीं चलती।
(iii) तीसरी बात है 'कर्म से कर्म बंधन'-~-प्रात्मा पर जहां तक पूर्वकृत कर्मों का दल बैठा हुआ होता है वहीं तक नये कर्मों का बंधन होता है; क्यों कि (१) इन कर्मों के उदय से ही हिंसादि भाव और रागादि दोषों का जन्म होता है। (२) ऐसे कर्मों को हटाने के बाद भी कर्मदत्त मन वचन काया की प्रवृत्ति रहती है वहीं तक नये कर्मो का बंधन होता है। इसी प्रकार (३) अकेली शुद्ध प्ररूपी प्रात्मा पर नहीं किन्तु प्रात्मा पर लगे हुए पुराने कर्मों के लेप पर ही नए कर्म चिपक सकते हैं। बाकी ये जो हिंसादि और रागादि वे कर्म-बन्ध के हेतु मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग में समा जाते हैं। प्राइये, अब कर्म-सिद्धि के अनुमानों पर विचार करें ।
कर्म-सिद्धि के अनुमान (१) बात यह है कि 'जो तुल्ल साहणाणं फले विसेसो न सो विणा हे'। अन्य बाह्य कारण सामग्री समान होने पर भी यदि दो कार्यों में अन्तर दिखाई देता हो तो वह अंतरंग किसी असमान कारण के बिना नहीं हो सकता।
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