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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन्म लेती है ऐसा यदि कहें, तो एक ही काल में तो अनेक वस्तुएं उत्पन्न होती हैं, फिर कार्यों में भिन्नता क्यों ? कारण-भेद बिना कार्य-भेद नहीं । (३) स्वात्महेतुक-स्वयं स्वयं से ही उत्पन्न होता है यह बात बुद्धिसंगत नहीं है । अपने स्वयं से उत्पन्न होने के लिये स्वयं अपनी प्रथम उपस्थिति होनी चाहिये । यदि उपस्थिति है, तो फिर उत्पन्न होना क्या शेष रहा ? यदि शेष है अर्थात् अभी उपस्थिति ही नहीं, तो अपने स्वयं से' सम्भव ही कहां से? (४) 'असत् से उत्पत्ति' यह भी गलत । असत् कोई चीज ही नहीं है, तो इससे उत्पन्न होना क्या ? एवं खरग-सम से उत्पन्न होने वाला इसके समान असत् ही हो न ? अथवा चाहे जो यदि उत्पन्न हो सके. तब तो फिर किसी को गरीब, किसी को भूखा, व किसी को रोगी रहने की क्या आव. श्यकता ? क्यों कि पैसा, अन्न, प्रारोग्य असत् से उत्पन्न हो जाएंगे। अथवा असत् से उत्पन्न होता हो तो कार्य समान रूप के हो, किंतु कभी बाल्यकाल, कभी युवावस्था, ऐसे विषम कार्य क्यों ? अथवा सम-विषम कार्य सब साथ होने लगे,-सर्दी-गर्मी, रोग-आरोग्य, जीवन-मृत्यु आदि ! इसलिए कार्य अकस्मात् उत्पन्न होता है, यह बात सर्वथा गलत सिद्ध होती है। ____ कर्म की उत्पत्ति (i) हिंसा से, (ii) राग द्वष से, (iii) कम से, इन तीनों प्रकार से बराबर है । (i) कर्म दो प्रकार के होते हैं:-पुण्यानुबन्धी और पापानुबन्धी । पुण्यानुबन्धी कर्म वे हैं जिनके उदित होने पर पुण्योपार्जन की परिस्थिति उपस्थित होती है । पापानुबन्धी कर्म वे है जिनके उदित होने पर पापोपार्जन की प्रवृत्ति होती है । भोग्य कर्म भी कोई शुभ होते हैं तो कोई अशुभ । इस प्रकार इनके कुल चार भेद होते हैं: __(२) पुण्यानुबन्धी पुण्य, (२) पापानुबन्धी पुण्य, (३) पुण्यानुबन्धी पाप, (४) पापानुबन्धी पाप । For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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