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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७ उ०- कारण सर्वथा सर्व धर्मों से कार्यानुरूप अथवा सर्वथा कार्य से विलक्षण होते नहीं, क्योंकि तब तो पहिले में कारण कार्यरूप ही हुआ, श्रथवा कार्य कारणरूप ही हुआ । यदि सर्वं धर्मों से अनुरूप ही कारणत्व - कार्यत्व दो भिन्न धर्म होते, फिर एक कारण और अन्य कार्य यह क्या ? एवं सर्वथा सर्व धर्मों से विलक्षण कहने में यह प्रपत्ति है कि एक में यदि वस्तुत्व धर्म है तो इससे सर्वथा विलक्षण प्रपवस्तुत्व धर्म ही अन्य में श्रा गिरेगा, अर्थात् वह श्रवस्तु ही सिद्ध होगी ! तब तो फिर वस्तु श्रवस्तु का कार्य-कारणभाव ही क्या ? मात्र कार्य कारण ही क्या, जगत की वस्तुमात्र परस्पर समान - असमान अनुरूप विलक्षरण होती हैं। फिर भी विशेष कर प्रधान कारण कार्य के अनुरूप कहलाता है इसका अर्थ यह है कि यह कार्य कारण का स्वपर्याय है । और अन्य कार्य कारण का पर-पर्याय है । कारण के ये स्व-पर्याय पर - पर्याय इसी कारण के अनुरूप - श्रननुरूप, समान -प्रसमान होते हैं । प्रस्तुत में जीव - पुण्य का संयोग यह कारण है, इसका कार्य सुख यह इसका स्व-पर्याय है । सुख जैसे शुभ, शिव कहलाता है वैसे ही पुण्य भी; अतः इस प्रकार अनुरूपता है । बाकी सुख श्रमूर्त है तो इसका कारण श्रमूर्त ही हो ऐसा नियम नहीं; क्योंकि अनुरूपता सर्वथा नहीं किन्तु श्रंश से होती है । (अ) अन्नादि यह सुख के कारण होते हुए भी अमूर्त कहां हैं ? मूर्त ही । इसी तरह कर्म भी मूर्त हैं । Яо - तो फिर अकेले श्रन्न - पुष्पहार - चंदनादि को ही सुख का कारण मानो, कर्म की क्या आवश्यकता है ? उ०—- ठीक है, तो प्रश्न है कि कहीं या होने पर भी सुख में अन्तर होता है, यह क्यों ? के कारण ही ऐसा होता है । कभी अन्नादि बाह्य साधन तुल्य कहना होगा कि विलक्षण कर्म (प्रा) तथा, कर्म मूर्त है, क्योंकि कर्म मूर्त देह का और देहबलाधान का कारण है; जैसे, - मूर्त तेल मूर्त घड़े को दृढ़ करता है । (इ) कर्म मूर्त है, क्योंकि मूर्त पुष्प- चंदनादि विषयों से पुष्ट होते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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